मेरी पसंद, मेरा अधिकार: नियम और शर्तें लागू?.

मार्च 2018 में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस ए एम खानविलकर और जस्टिस डी वाई चंद्रचूड की तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने कहा कि जब दो वयस्क व्यक्ति विवाह में प्रवेश करने के लिए सहमत हों, तो परिवार या समुदाय की सहमति ज़रूरी नहीं है। पंचायतों या किसी भी अन्य जमावड़े द्वारा इन वयस्कों को बेदखल करना या रोकना बिल्कुल अवैध है। जब दो वयस्क एक दूसरे को जीवन साथी के रूप में चुनते हैं, तो यह उनकी पसंद की एक अभिव्यक्ति है, जिसे संविधान की धारा 19 और 21 के तहत मान्यता प्राप्त है।

आप सोचेंगे कि आज इस पर चर्चा की ज़रुरत क्यों है। इसका जवाब है, बरेली के एक सवर्ण विधायक की बेटी का एक दलित लड़के से शादी करना और उसके बाद अपने पिता से जान का खतरा बताने वाले उसके वीडियो का वायरल होना। इस वीडियो ने एक बार फिर से चुनने के अधिकार पर बहस छेड़ दी है जिसमें सोशल मीडिया दो हिस्सों में बंटा नज़र आ रहा है। नियम और शर्तों के बीच पलता और पोषित होता, चुनने का अधिकार जो सीधे हमारी गोत्र, जाति, धर्म, क्लास से तय होता है, उस पर बहस न होकर, पिता और बेटी के फ़र्ज़, उसका चरित्र, लड़के का अपराधिक रिकार्ड और चरित्र पर पहुंच गया है। और तो और इलाहाबाद हाइकोर्ट में तमाम सुरक्षा के दावों के बाद भी पेशी पर गए इस जोड़े को हाथापाई का सामना करना पड़ा, वहीं गेट से ही एक और जोड़े का अपहरण भी कर लिया गया।

जाति व्यवस्था, ऊँच-नीच के फेर में फंसे भारतीय समाज के लिए यह नया नहीं है। झूठी शान को लेकर तमाम हत्याएँ हो चुकीं हैं। चाहे वो नीतिश कटारा और भारती यादव का मामला हो या कोलकाता का रिज़वान और प्रियंका तोड़ी की प्रेम कहानी, ये कुछ मामले हैं जो मीडिया की सुर्खियों में आने की वज़ह से लोगों के ज़हन में जिंदा है। लेकिन बहुत से मामले ऐसे हैं जो मीडिया की सुर्खियाँ नहीं बन पाते और उनके साथ क्या होता है भगवान ही जाने। 

इस साल 10 जून से 10 जुलाई, सिर्फ एक महीने में जाति व धर्म से बाहर शादी करने की वजह से 21 से अधिक हत्या के मामले सामने आए हैं! साफ है कि पढ़ने की आज़ादी और नौकरी की आज़ादी जैसे नारे के साथ प्रगतिशीलता का दावा करने वाला यह समाज दोहरे चरित्र का है। हकीकत इस तरह के मामले आने पर खुल कर सामने आ जाती है। लोगों को अपनी बेटी-बहन से प्यार न होकर जाति और धर्म से होता है और यह दूसरी जातियों और धर्म के प्रति उनकी अस्वीकार्यता को भी दर्शाता है। समाज की संवेदनशीलता भी समय व अवसर के मुताबिक तय होती है और जो शामिल होने वालों यानी शादी करने वाले कौन है, किस जाति या धर्म से हैं और परिवार का प्रोफाइल क्या है, देखकर प्रतिक्रिया देता है। 

चुनने की आज़ादी के अधिकार की बात करते हैं तो वहां पर भी इस समाज का सेलेक्टिव नज़रिया देखने को मिलता है। लड़का होगा तो उसकी पसंद का अधिकार अलग होगा और लड़की होगी तो उसे प्रगतिशीलता के नाम पर थोड़ी आज़ादी मिल भी जाए तो उस आज़ादी पर नियम और शर्तें लागू हैं। उसे पढ़ाई करने, अपना कैरियर चुनने, बाहर अकेले आने-जाने की आज़ादी मिल भी जाए तो भी अपनी पसंद से जीवन साथी चुनने, शादी करने का अधिकार नहीं है।

लड़कों के मामले में कुछ हद तक यह समाज लचीला रूख अपनाता है, जिसके पीछे समाज की यह पितृसत्तात्मक सोच भी काम करती है कि लड़की की कोई जाति या धर्म नहीं होता वो जहां जाएगी वहां की हो जाएगी, शादी के बाद इसका सरनेम और नाम तक बदलने की परंपरा इसको सच भी साबित करती है। लेकिन लड़कियों के मामले में ऐसा नहीं है, उनको तो पहले प्रेम करने का हक़ ही नहीं है और कर भी लिया तो अपनी जाति-बिरादरी में वो भी गोत्र देखकर करना था।

पुलिस, कानून और न्याय व्यवस्था के बाद भी ये घटनाएँ कम नहीं हो रही हैं। पितृसत्तात्मक सोच वाला समाज इस तरह की घटना को अंजाम देने वालों को इज़्ज़त की नज़र से देखता है, इसलिए हत्या करने वाले को जेल जाने के बाद भी अफसोस नहीं होता है। वहीं इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि पूरी तरह से संविधान और कानून पर भरोसा करके उसके मुताबिक चलने वाले प्रेमी जोड़ों को अपने हक के लिए भी डर-डर के जीना पड़ता है। 

भारतीयता का नारा लगाने वाले जाति व्यवस्था में जकड़े लोगों को अब अपना सोचने का नज़रिया बदलने की ज़रुरत है। उन्हें अपने आस-पास के लोगों को जाति और धर्म से निकल कर इंसान के नज़रिये से देखना होगा, जो किसी भी आधार पर भेद न करता हो। इसके बिना चॉइस का अधिकार सिर्फ संविधान में लिखी लाइनों तक ही सीमित रह जाएगा।

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