देश का नागरिक होने के नाते हमारे संविधान ने हमें अधिकार दिए हैं और उन अधिकारों का पालन सही तरीके से होती रहे, इसके लिए कुछ कर्तव्य भी दिए हैं। संविधान की नज़र से देखे तो कोई भी अधिकार छोटा या बड़ा नही है और एक अधिकार दूसरे अधिकार से जुड़े हुए हैं। इसके अलावा कुछ विशेषाधिकार भी है, जो हमें संविधान के द्वारा नही मिलते और ना समाज के सभी सदस्य को मिलते हैं। विशेषाधिकार की बात करें तो उसके भी दो रूप सामने आते हैं, ऐसे विशेषाधिकार जिन्हें अर्जित किया जाता है और ऐसे विशेषाधिकार जिन्हें अर्जित करने की कोई ज़रुरत ही नही है। विशेषाधिकार ऐसी सुविधाएँ/सहुलियत हैं जो एक व्यवस्था को बनाने रखने के लिए लिंग, जाति, नस्ल या धर्म के आधार पर उच्चतम माने जाने वाले व्यक्तियों को सामाजिक रूप से मिलता है। ये विशेषाधिकार सामाजिक रूप से निम्न माने जाने वाले व्यक्तियों का दमन करने की एक ऐसी नीति है जिसमें विशेषाधिकार प्राप्त करने वाला ना तो शोषण को पहचानता है और ना ही उसके खिलाफ खड़ा होता है। विशेषाधिकार और दमन एक साथ चलते हैं।
लिंग के आधार पर देखे तो पुरुषों को बहुत से विशेषाधिकार सामाजिक रूप से मिले हुए हैं जिनको पुरुष बहुत कम पहचान पाते हैं। इसके साथ यह भी नज़र आता है कि जिन्हें पुरुष हितकारी विशेषाधिकार समझकर रोज़ाना अपने जीवन में अपना रहे हैं, कैसे वो उनके खिलाफ एक जाल बना देते हैं। इस जाल में रहकर समानता, न्याय और मानवता को देख पाना मुश्किल हो जाता है जब तक पुरूष उन्हें तोड़ कर बाहर ना आ जाए।
अगर मैं अपनी बात करूँ तो बचपन से ही खिलौनों के माध्यम से परिवार ने यह बात स्पष्ट कर दी कि पुरुषों और महिलाओं के क्या क्या कार्य हैं। ज़्यादातर मेरी बहन के खिलौनों में गुड़िया और रसोई का छोटा-छोटा सामान देखने को मिलता। इन खिलौने के माध्यम से हमें ये सबक दिया गया कि रसोई से जुड़ा कार्य और बच्चों की देखभाल सिर्फ महिलाओं का ही कार्य है। पुरुषों का कार्य घर से बाहर के कामों से जुड़ा है। एक विशेषाधिकार के रूप में मुझे घरेलू कार्य और बच्चों की देखभाल जैसे कार्य नही करने पड़ते। लेकिन मेरे घर की महिलाओं को इसका सीधा परिणाम झेलना पड़ा है। मेरी माँ, बहन और पत्नी को अनपेड कार्य के रूप में यह कार्य करना पड़ता है। अगर मैं अपनी बहन की बात करूँ तो घरेलू कार्य और छोटे भाई बहनों के बोझ की वजह से उसकी शिक्षा बहुत प्रभावित भी हुई। जो पुरुष घरेलू कार्य और बच्चों की देखभाल करते हैं उन्हें समाज में नामर्द की संज्ञा दे दी जाती हैं । इस डर की वजह से मैं घरेलू कार्य जैसे जीवन कौशल को सीखने से बहुत समय तक वंचित रहा।
अगर हम समाजीकरण की बात करे तो महिलाओं को ममतामयी, करुणा और त्याग करने वाली के रूप में समाजिक तौर पर स्थापित करता हैं। इसके विपरीत पुरुषों को विशेषाधिकार के रूप में हिंसात्मक रूप को व्यक्त करने के लिए समाजिक स्वीकृति मिली हुई है। घर से लेकर संसद तक, हर जगह पुरुषों को यह विशेषाधिकार है कि वे गुस्से और हिंसा का प्रयोग कर सकते हैं। भले ही कानून इसकी इजाज़त नही देता, लेकिन समाजिक स्वीकृति हमेशा मिलती रही है। यह मान्यता है कि जिस पुरुष को गुस्सा नही आता वो मर्द नही है।
एक पुरूष की जितनी भी महिला मित्र हों, ऐसे पुरुषों को चरित्रहीन नही समझा जाता जिस तरह महिलाओं को, पुरुष दोस्त होने के लिए समझा जाता है। लेकिन पुरुषों की महिला मित्र ना होने पर उन्हें समलैंगिक होने या यौनिक कमज़ोरी कह कर परेशान किया जाता है। क्योंकि आज भी हमारे समाज में समलैंगिक होने को शर्म से जोड़ा जाता है।
ज़्यादातर महिलाओं पर परिवार को संभालने की ज़िम्मेदारी को ही प्राथमिक माना गया है और इसलिए महिलाओं को ऐसे व्यवसाय में जाने की अनुमति दी जाती है जिसमें परिवार की देखभाल वाली प्राथमिक ज़िम्मेदारी में कोई ख़लल ना पड़े। अगर ऐसा हो तो महिलाओं पर नौकरी छोड़ने के लिए दबाव डाला जाता है। जो महिलाएं इन सब बातों को दरकिनार करके अपने कैरियर के बारे में सोचती हैं, उन पर मतलबी का लेबल लगा दिया जाता है। लेकिन पुरुषों के मामले में ऐसा नही है। पुरुषों को यह विशेषाधिकार है कि वो अपने कैरियर के प्रति केंद्रित हो सकते है और उन्हें किसी प्रकार से लेबल नही किया जाएगा। ऐसा इसलिए भी हो सकता हैं कि पुरुषों पर एक घर चलाने का आर्थिक भार समाजिक रूप से हैं। अगर इस विशेषाधिकार के परिणाम की बात करे तो ज़्यादातर पुरुषों में कैरियर को लेकर मानसिक तनावपूर्ण जीवन रहता है। अगर हम उन पुरुषों की बात करे जो अपने घरों की महिलाओं के कैरियर प्रति जागरूकता दिखाते है तो उनके मर्द होने पर सवाल खड़े कर दिए जाते हैं, फिर चाहे वो पुरुष पिता हो या पति। अगर जाति के दृष्टिकोण से देखें तो यह धारणा उच्च कहे जाने वाली जातियों में और ज्यादा गहरी होती नज़र आती है।
निश्चित तौर पर विशेषाधिकार से लाभान्वित हो कर दमन की व्यवस्था को मज़बूत बनाना एक चक्र है। इसकी वजह से लड़कियों, महिलाओं बच्चों और कुछ पुरुषों को भी इसका शिकार होना पड़ता है। लेकिन सोचने की बात यह भी है कि इन्हीं विशेषाधिकारों के कारण पुरुषों में करूणा और मानवता के भाव सही रूप से विकसित नहीं हो पाते। जिन्हें विशेषाधिकार समझ कर पुरुषों को लाभ नजर आता है, असल में समाज का एक जाल है जिसमें पुरुष फस कर एक हिंसक, अमानवीय नक़ाब को ही अपना असली चेहरा या व्यक्तिगत चेहरा मान लेते हैं। इसलिए पुरुष करुणा और ममता जैसे भावों से हमेशा वंचित रहते हैं और इसका असर पुरुषों के रिश्तों में साफ साफ नज़र आता है। फिर चाहे वो रिश्ते अपने बच्चों से हो या फिर पड़ोसी देश से हो! बदलते दौर में बहुत ज़रूरी हो गया है कि सामाजिक विशेषाधिकारों के जाल से निकलकर, एक शांतिपूर्ण और सुंदर जीवन को जीने के कौशल को पुरुषों में भी विकसित किया जाये। तभी ये दुनिया सुरक्षित और सुंदर बन पाएगी।