मैं तो समझती थी कि बच्चे जनने के अलावा स्त्रीत्व की कोई और परिभाषा ही नहीं है। लेकिन समाज ने मुझे बताया कि स्त्रीत्व को समझना इतना भी सरल नहीं है। मैंने सीखा कि शरीर की उस लचक, अदा और चाल का केवल स्त्री पर ही अधिकार है यदि स्त्री के अलावा पुरुष में यह झलक दिखने लगे तो वह भटका हुआ, “मीठा” और निकम्मा मर्द होता है। मुझे बताया गया कि जज़्बातों को आंसू के रूप में बहा देना भी स्त्रीत्व की ही तो पहचान है। धीमे स्वर में बोलना, शर्माना, और कोई प्रश्न पूछे जाने पर तपाक से ना बोल कर नज़रे झुका कर धीरे से उत्तर देना स्त्रीत्व का ही भाग माना जाता है। सबका ख़्याल रखना, घर का काम करना, भाई, पिता और पति को परमेश्वर मानना ही तो है इसकी परिभाषा।
अभी तो मैं यह परिभाषा भी नहीं समझ पाई थी कि अचानक मुझे यह पता लगा कि स्त्रीत्व तो एक गाली है। लेकिन कब बन गई यह एक गाली या शुरू से ही थी? यह तो मैं नहीं जानती परन्तु यह सुनकर मानों क्रोध की एक लहर सी मेरे शरीर में दौड़ पड़ी। मैंने भौखलाकर पूछा कि मेरा अस्तित्व एक गाली कैसे और कब बन गया? प्रश्न का कोई उत्तर ही नहीं था समाज के पास।
उसने मुझसे कहा “चुप हो जाओ, इतना मत सोचो, सब जैसा है वैसा चलने दो”। यह सुनकर मैं कुछ पल के लिए चुप तो हो गई परन्तु मन ही मन बहुत से प्रश्न मानों ज्वालामुखी की तरह फूटने लगे। क्या है स्त्रीत्व की सीमा? आख़िर क्या है इस सीमा के पार? यह सीमा बनाई किसने है? क्या इस सीमा को लांघना मुमकिन है? और क्यों लांघू मैं इस सीमा को? और अगर लांघना भी चाहूं तो क्या मुझे लांघनें दिया जाएगा या फिर उस पार से इस पार आने वाले मर्दों की तरह धुधकार दिया जाएगा?
क्या है स्त्रीत्व की सीमा? आख़िर क्या है इस सीमा के पार? यह सीमा बनाई किसने है? क्या इस सीमा को लांघना मुमकिन है? और क्यों लांघू मैं इस सीमा को? और अगर लांघना भी चाहूं तो क्या मुझे लांघनें दिया जाएगा या फिर उस पार से इस पार आने वाले मर्दों की तरह धुधकार दिया जाएगा?
क्यों उन पुरुषों की इज़्ज़त नहीं जिन्होंने समाज की बांटी हुई सीमाओं को लांघ दिया है? क्या मेरी भी इज़्ज़त नहीं होगी यदि मैं भी स्त्रीत्व की यह सीमा लांघ दूं तो? क्या मुझे सर्वश्रेष्ठ मान लिया जाएगा या फिर समाज की एक निकम्मी औरत कहा जाएगा?
इन प्रश्नों के उत्तर मैं मन ही मन खोज ही रही थी कि समाज ने टोकते हुए मुझसे कहा, “अरे तुम औरत हो, इतना क्यों सोचती हो, आखिर इतने प्रश्न क्यों? छोड़ो ना, तुम्हारा तो काम है केवल सुंदर दिखना, यही तो होती है स्त्रीत्व की पहचान”। यह सुनकर मेरे विचारों ने मानों अपना दम तोड़ ही दिया था परन्तु मैंने होंसला बटोरा और समाज की बनाई हुई उस खोखली स्त्रीत्व की सीमा को लांघ कर ऊंचे स्वर में कहा “बस, अब बहुत हुआ”।
मेरा यह तेवर देख कर समाज ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा और मेरे बारे में अटपटी सी राय बनाता हुआ और कुछ बड़बड़ाता हुआ अपनी दिशा बदलने लगा और मुझे रास्ते से भटकी हुई औरत समझ कर वहीं अकेला छोड़ गया। आगे चलकर किसी और स्त्री को मेरा उदाहरण देते हुए समाज ने समझाया कि एक निकम्मी औरत कैसी होती है, जो लांघ देती है स्त्रीत्व की सीमा। परंतु वास्तव में मैंने तो कोई सीमा लांघी ही नहीं, बल्कि मुझे तो कोई सीमा दिखी ही नहीं।