अब तो गुड्डी के साथ ऐसा अक्सर होता था कि जब वह बर्तन मांझती तो आंखों में भी पानी की बूंदे तैरने सी लगती थी। और जब पास के कुएं से बड़ी सी टोकनी सिर पर उठा कर लाती तो ये स्वयं गुड्डी को भी समझ नहीं आता था कि सिर पर रखी टोकनी से झलकते पानी की धार कौन सी है और उसके आंसुओं की कौन सी। दोनों एक दूसरे में गढमढ सी हो जाती थी। पर गुड्डी को आंसुओं की गर्म लकीर अपने गाल पर महसूस होती रहती थी। नौ या दस साल की ही तो रही होगी गुड्डी जब उसे घर के सारे काम करने के लिए कह दिए जाते थे और वहीं उसी आंगन में उससे दो साल बड़ा भाई अपनी कपड़े से या साईकिल के ट्यूब के छल्लों से बनी गेंद से बेपरवाह सा खेलता रहता था। एक दिन यूं ही गुड्डी कुछ बुदबुदाने लगी थी। अब आंखों में नमी नहीं बल्कि उनकी जगह कुछ शब्दों ने ली थी। कुछ बोल गुड्डी के मुंह से एक लय में अपने आप निकल रहे थे। सीधे स्पाट शब्द तो नहीं थे लेकिन उनका मतलब कुछ ऐसा ही था कि भाई हम दोनों ही एक मां की कोख से पैदा हुए है। फिर ये फर्क क्यंू है। गुड्डी ने जैसे सारे सवालों को एक लड़ी में पिरो दिया था।
बीर हम मां के जाये रे,
हेरे जनमे थे एक शरीर,
के किस्मत न्यारी न्यारी रे
बीर तू तो पढ़ण बिठा दिया रे,
हे रे तेरे कपड़े कीमतदार,
न्हाण नै तो साबन भी चाहिए
बीर मैं तो अनपढ़ रह गी रे,
हे रे मेरे कपड़े लीरमलीर,
न्हाण की तो फुर्सत कौन्या रे
बीर तेरा आच्छा खाना रे,
हे रे सोवण नै पिलंग न्वार,
डाट कुणबै पै मारे रे
बीर मेरा बासी खाना रे,
हे रे सोवण नै टूटी खाट,
डाट कुणबै की ओटूं रे
ये गीत हरियाणा के सबसे पुराने लोकगीतों में से एक है, जो हरियाणा के लगभग हर हिस्से में गाया जाता है।पिछले दिनों आशा वर्कर्स की ट्रेनिंग के दोरान और जैन कॉलेज में लडकियों के दुवारा जब इस गीत को गाया गया तो मुझे लोकगीतों के विषय में और अधिक जानने की जिज्ञासा हुई । इस गीत के बनने और गुड्डी की कहानी भले ही काल्पनिक है लेकिन कुछ ऐसी ही परिस्थितियों रही होंगी जब ऐसे किसी भी गीत का जन्म हुआ होगा। ऐसा माना जाता है कि लोकगीत, साहित्य एवं संस्कृति समाज का आईना होते हैं। हालांकि आज के नए दौर में यह कहावत कुछ धुंधली सी पड़ गई है। हरियाणा सहित लगभग सभी प्रदेशों के अपने-अपने कुछ विशेष गीत व किस्से कहानियां है। जिनमें या तो राजा-महाराजाओं के किस्से है या फिर लोगों की जिंदगी से जुड़ी हुई बातें। ऐसे ही कुछ लोक गीत है, जिनमें महिलाओं के दुख-दर्द को व उनके हालातों को ब्यां किया गया है। आम तौर पर शादी ब्याह व तीज त्यौहारों पर गाए जाने वाले गीतों में खुशी व उल्लास के स्वर होते है। नृत्य की बात होती है किंतु बहुत से ऐसे गीत भी है, जो महिलाओं की जिंदगी से सीधे जुड़े हुए है। कुछ गीत तो ऐसे है कि हम हरियाणा के किसी भी हिस्से में जाएं हमें उनकी धुन थोड़ी सी अलग ही सही लेकिन सुनाई दे जाती है।
लोक गीत किस ने और कब लिखा इस बारे में कोई भी सही अनुमान नहीं लगाया जा सकता। किंतु इतना तय है कि लोक कला एवं साहित्य वास्तविक जीवन से दूर नहीं होता। उसमें आम जनता के सांझे दुख-सुख एवं आशा-निराशा सब शामिल होते हैं। महिलाओं से जुड़े बहुत से ऐसे लोक गीत, जिनमें नारी मन की पीड़ा नजर आ ही जाती है। लड़कियों के बाल विवाह और बेमेल शादियां का एक लंबा सिलसिला रहा होगा और सदियों सदियों के दुख और वेदनाओं के बाद ना जाने कब किसी महिला के दिल ने कह दिया हो कि:-
दादा देश जांदा परदेश जाईये, म्हारी जोड़ी का वर ढूंढिये…
और ये गीत हरियाणा में इतना प्रसिद्ध है कि हरियाणा के महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में होने वाले युवा उत्सवों में अक्सर इस गीत की गूंज सुनाई देती ही रहती है। ये गीत भले ही शादी ब्याह के मौके पर गाया जाता है किंतु इस गीत की इन पंक्तियों में छुपी युगों युगों की पीड़ा को महसूस किया जा सकता है कि दादा बस इतनी सी अर्ज है कि आप जो लड़का मेरे लिए देखने जा रहे हो, वो मेरी जोड़ी का हो … मेरे मेल का हो.. मेरी उम्र .. मेरे हाण का हो…।
भले ही हरियाणा में कोई बड़ा नारी आंदोलन ना रहा हो किंतु दुखी, त्रस्त जुबान आखिर कब तक चुप रहती… कभी कुछ कह दिया होगा और मुंह से निकले उन्हीं कुछ बोलों ने खुद को एक गीत का रूप दे दिया होगा और क्यूंकि दर्द, तकलीफ, वेदना हर नारी की थी इसलिए जब ये बोल समाज के सामने आए तो उन्होंने लोकगीत की शक्ल ले ली थी…
औरत ने खुद को हमेशा घर की चारदिवारी में ही कैद पाया है। विवाह-शादी, तीज-त्यौहार व मेले आदि में जाने के लिए उसे हमेशा घर परिवार के बड़े बूढ़ों की तरफ ताकना पड़ा। ओढऩे पहरणे, मनपंसद का खाने-पीने, किसी से भी मिलने जुलने या अपने पिता के घर आने-जाने के लिए भी हमेशा किसी की इजाजत का होना जरूरी रहा है।
जन्म लेने से ही शुरू हुए भेदभाव और प्रताडऩाओं ने जवान होते ही पाबंदियों का रूप ले लिया, शादी हुई तो सास-ससुर की सेवा और पति परमेश्वर का ख्याल और जब तक वो इन सब बातों को समझ पाती कि वो खुद को मां के रूप में पाती है। घर की दहलीज ना लांघने के उपदेश और पंचायत, चौपाल में जाने की मनाही के साथ-साथ उसका कभी भी परिवार के किसी भी बड़े फैसले में कोई दखल नहीं रहा। नारी की इन सब अंतर्वेदनाओं की अभिव्यक्ति कहीं ना कहीं लोक गीतों में नजर आती है।
जिस दिन लाडो तेरा जनम होया था
होई ऐ बजर की रात
जिस दिन लाला तेरा जनम होया था
होई ऐ सोरण की रात
नो लख दिवले लाडो चास धरे थे
तो बी घोर अंधेरा
एक दिवला रे लाला चास धरा था
जगमग-जगमग रात
अपने जन्म पर भले ही किसी लड़की को ये गीत ना सुनाई दिया और समझने की बात तो बेमायने है ही लेकिन जब भी किसी लड़की ने ये गीत कहीं पढ़ा सुना होगा तो इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि उस पर क्या बीती होगी। हर लड़की के जेहन में ये सवाल आता ही होगा कि ऐसा क्या हुआ था मेरे जन्म पर की नौ लाख दीपक जलाने के बाद भी चारों तरह घोर अंधेरा ही छाया रहा। और लड़का हुआ तो ऐसा दीपक जला कि सारी रात जगमगाने लगी।
हरियाणा में आज भी शादी ब्याह में मामले में लड़कियों की इच्छा का कितना ख्याल रखा जाता है ये कोई ऐसा सवाल नहीं है कि जिसका उत्तर किसी को ना समझ आता हो। और वो कौन सी परिस्थितियां रही होगी कि ये गीत लोकगीत के रूप में जन्मा और ये भी नहीं पता कि कितने सैंकड़ों हजारों साल पहले कि दादा, ताऊ और घर के तमाम बड़े -बूढ़ों से लडकी गुजारिश कर रही है कि
दादा देस जांदा पेरदेस जाइये म्हारी जोड़ी का वर ढूंढिये
हंस खेल ए दादा की पोती, ढूंढया सै फूल गुलाब का
ताऊ देस जांदा परदेस जाइये,म्हारी जोड़ी का वर ढूंढिये
हंस खेल ए ताऊ की ऐ बेटी, ढूंढया सै फूल गुलाब का
समाज ने हमेशा लड़की का पराया धन कहा और व्यवहार में भी ऐसा ही देखा गया। विवाह के बाद तो लड़की का नाता घर से टूट ही जाता है। इस लोकगीत में वही दुख भी साफ झलक रहा है:-
हम हैं बाबुल मुंडेरे की चिडिय़ा,
कंकरी मारे उड़ जायें रे, ओ लक्खी बाबुल मेरे
हम हैं बाबुल तेरे, चौणे की गऊंए
जिधर हांको हंक जायें रे, ओ लक्खी बाबुल मरे …
इसी बात को शादी के मौके पर एक बार फिर से याद दिला दिया जाता है कि लड़की पराया धन ही होती है।
इस दुख को एक दूसरे लोकगीत में यूं कहा गया है कि :-
पहला फेरा लीजिए, दादा की हे पोती,
दूसरा फेरा लीजिए, ताऊ की हे बेटी,
…..
छठा फेरा लीजिए, नाना की हे दोहती,
सातवां फेरा लीजिए, लाडो होई ऐ पराई…
और शादी के ही मौके पर सखियां गीत ही गीतों में ये संदेश दुल्हन को देती है कि
सास ससुर का कहना मानना, पति की सेवा करना और अगर तुम ऐसा नहीं करोगी तो लोग तुम्हें कुल्छणी कहेंगे।
जीजी सुसरा का कहा मत गेरिये,
सुसरा धरम का बाप, जीजी चाली सासरे,
जीजी सासू का कहा मत गेरिये,
सासू धरम की मां, बाहण चाली सासरे…
धर्म की दुहाई देकर सभी की सेवा करने का संदेश दिया जाता है, लेकिन जब धर्म के ये रिश्ते ज्यादती करें तो भी गीत बनते है और लोकगीतों की शक्त अख्तियार कर लेेते हैं:-
चाकी पर धरा पीसणा, चाकी का भारया पाट,
जब सारा दिन घर में खटणे के बाद भी औरत से ये सवाल किया जाए कि तू सारा दिन घर में पड़ी पड़ी करती क्या है तो भी गुस्सा और भावना गीत की शक्त लेेने लगती है:-
मैं तो माड़ी हो गई राम, धंधा करकै इस घर का,
बखते ऊठ कै पीसणा पीसूं, सदा पहर का तड़का,
सास-नंनद निगोड़ी न्यूं कहैं, तनै फेर्या क्यूं नी चरखा,
बासी-कूसी टूकड़े खागी, घी कोन्या घरका…
और जब दुख की रात बहुत लंबी रही होगी तो आंसुओं ने ऐसा कहा होगा कि:-
कुछेक दिनां का ना है, मेरा सारे जन्म का रोना..
महिलाओं को छेडख़ानी और बदनियती का शिकार हमेशा से ही होना पड़ा है और जीवन के ये स्याह पल भी गीतों में ढल गए:-
निंबुए तोडऩ गई थी बाग म्हं,
माली के नै बहियां मरोड़ी री बाग म्हं,
छोड़ दे रे माली के बहियां हमारी,
ससुरा सुणैगा गाली देगा रे बाग म्हं…
ऐसे ही बहुत गीतों में नारी मन की वेदना को देखा जा सकता है। ऐसा ही एक गीत उस महिला का दर्द ब्यां कर रहा है कि उसका पति फौज की नौकरी के लिए बाहर गया है। नई नवेली दुल्हन किस को अपने मन की बात समझाए कि उसके दिल में क्या चल रहा है तो वो अपने पति की फोटो से बाते करने लगती है और कहती है:-
सामण बीत गया सारा, कदै झूल घली ना डालै में
तेरी फोटो गेल्या झगडै़ जासू, जो धर्गया था आले में….
ना वेदनाएं कम हुई, ना लब खामोश हुए। हालांकि महिलाओं द्वारा जितना दर्द और पीड़ा सही गई उतना दुख साहित्य ना समेट पाया हो। वहीं नए दौर में नए गीत भी रचे गए। लेकिन इन नये रचे गीतों का लहजा और भाव लोक गीतों से कुछ जुदा हैं, इन नए गीतों में सदियों के संताप का जिक्र नहीं, बल्कि नई आशा और जोश से सराबोर ये गीत बदलते वक्त की जुब़ा है
हे ना समझो बेटी बोझ मैं देके जोर कह री सू
आभार:-
ये लेख साथी विरेंदर से बातचीत पर आधरित है