क्या बिजली, सड़क, पानी और आर्थिक विकास के आंकड़े किसी देश के विकास का पैमाना तय कर सकते हैं? शायद नही क्योंकि इनके साथ हमारा मानसिक विकास होना भी जरूरी है, जिसमें शायद अभी हम पीछे हैं? हमारा समाज मानसिक रूप से आज भी विकसित नहीं हो पाया है।
मैं बात कर रहा हूं उस मानसिकता की जिसके कारण आज भी छोटी बच्चियों, लड़कियों व महिलाओं के साथ अकसर यौन उत्पीड़न, रेप, जिंदा जला देने जैसी घटनाएँ देखने और सुनने को मिल रही हैं। महीने भर पहले ही आगरा में एक लड़की को ज़िंदा जला दिया गया। पुलिस के बयान के मुताबिक़ उसका कसूर सिर्फ इतना था कि उसने एक लड़के के एकतरफा प्यार को ठुकरा दिया था। क्या ऐसी घटनाएँ एक देश, जो विकास के रास्ते पर आगे बढ़ना चाहता है, उस पर यह एक प्रश्नचिन्ह नहीं है?
आज भी हमारे समाज में लड़कियों को अपनी मर्ज़ी से जीने का अधिकार नहीं है। ऐसे माहौल को देखते हुए लड़कियाँ घर से निकलने से पहले कई बार सोचती हैं। वहीं पुरुष प्रधान समाज महिलाओं की आज़ादी पर अपना अधिकार मानता है। कभी-कभी हमें लगता है कि हम किस समाज में जी रहे हैं! ऐसा समाज जो पूरी तरह से सड़-गल चुका है, जिसकी मानसिकता से बदबू आ रही है। ऐसी बदबू जिसका ज़हर धीरे-धीरे इंसानियत को खत्म कर रहा है।
आज हम दोहरी मानसिकता में जी रहे हैं, हम केवल अपने स्वार्थ, अपने हित के लिए ही बोलते हैं। दूसरे के साथ हुई घटना का हमारे जीवन पर कोई असर नहीं होता। दूसरे के दुख को हम महसूस करना नहीं चाहते हैं। शायद इसीलिए आज हमारी बेटियां घर से बाहर निकलने के लिए डरती हैं। क्योंकि उन्हें पता है कि यदि कोई घटना घटती है तो समाज का कोई व्यक्ति उस पर नहीं बोलेगा। हर किसी के ज़हन में मदद करने से पहले एक ही सवाल होगा, ये तो दूसरे का मामला है, फिर मैं क्यूं बोलूं?
एक लोकतांत्रिक देश में इतने अधिकार होने के बाद भी किसी को यह अधिकार किसने दे दिया कि कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे पर अत्याचार कर सकता है? कोई पुरुष किसी महिला को अपने अनुरूप जीने पर कैसे विवश कर सकता है, शायद कहीं ना कहीं हम उस सभ्यता का हिस्सा होते जा रहे हैं जो हैवानियत पर भरोसा करती है। जिसमें व्यक्ति सिर्फ अपने लिए जीता है और अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए वह दूसरों के अधिकारों को अधिकार नहीं समझता।
आज मुझे समाज की ऐसी घटनाओं ने विवश कर दिया है, ये सोचने के लिए कि हम किस दिशा में जा रहे हैं? यदि समाज में अधिकार है तो सभी के लिए होने चाहिए। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिसमें समाज का प्रत्येक वर्ग एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करे। महिला और पुरूष के आधार पर भेद न हो। शायद फिर कहीं जाकर अधिकारों का असल मकसद पूर्ण होगा।
आगरा में हुई घटना पर एक स्कूल में लड़कियों से बात करते हुए वास्तविक स्थिति का एक सच सामने आया, जिसने मुझे कुछ समय के लिए चुप कर दिया। एक लड़की ने कहा कि “सर, हमारे साथ तो ऐसा नहीं होता और ना ही हमारे शहर में होता है”। इन शब्दों ने सीधा मेरे दिमाग पर प्रहार किया और मैं चुपचाप सोचता रहा की क्या यही सच है?
वास्तव में किसी भी इंसान को किसी दूसरे इंसान की तकलीफ़, दुख दर्द का कोई एहसास नहीं होता। उसे लगता है कि शायद मैं सुरक्षित हूं और मेरे साथ ऐसी घटनाएँ कभी नहीं घट सकतीं। शायद हम सब भी यही सोचते हैं और इस तरह के गंभीर मुद्दों पर भी आवाज़ नहीं उठाते।
हमारा समाज किस दिशा में जा रहा है? क्या हमारी शिक्षा, हमारा, संविधान, कानून, न्याय, सब इतना कमजोर हो गया है कि हम अपने आस-पास की परिस्थितियों को समझ नहीं पाते, या उन परिस्थितियों को समझना नहीं चाहते और उन्हें अनदेखा कर देते हैं।
अगर भविष्य में हमें अपनी युवा पीढ़ी को सभ्य और विकसित समाज का हिस्सा बनाना है, तो उनकी मानसिकता का बदलना बहुत ज़रूरी है। उनके लिए शिक्षा, समानता, न्याय आदि को उनके व्यवहार में लाना होगा, क्योंकि जब तक व्यवहारिक रूप से व्यक्ति शिक्षा का प्रयोग नहीं करेगा, वह ऐसे ही असभ्य समाज का हिस्सा रहेगा और अपने लिए ही जीने की कोशिश करेगा।
हमें समाज के सोच पर काम करने की आवश्यकता है। मानसिकता बदल कर ही एक सभ्य समाज बनाया जा सकता है जिसके लिए वर्तमान शिक्षा प्रणाली को व्यवहारिक बनाने की आवश्यकता है।