ये कहानी मेरी ख़ुद की है। मेरी एक दोस्त थी, जो मेरे घर के पास ही रहती थी। हमारी दोस्ती इतनी अच्छी थी कि हम एक-दूसरे के बिना ना तो स्कूल जाया करते थे और ना ही खेला करते थे। हम दोनों लड़ाई भी बहुत किया करते थे। हम दोनों एक साथ एक ही क्लास में पढ़ते थे। ऐसा भी होता था कि जब आपस के दोनों परिवारों में झगड़ा हो जाया करता था, तो हमारे परिवार के लोग कहते थे कि तुम्हें उससे बात नहीं करना है और ना ही साथ में पढ़ने जाना है। मेरी दोस्त बहुत जल्द हार मान जाया करती थी और मैं उसके बिलकुल उल्टा थी। जो काम मुझे करने के लिए मना किया जाता था, मैं उसी काम को किया करती थी।
एक दिन ऐसा ही कुछ हुआ, जिससे हम दोनों को एक दूसरे से बात करने के लिए मना कर दिया गया। वो अपने परिवार की बात मानकर मुझ से बात करना बंद कर दी। लेकिन मैं इन सब को ध्यान न करके, उससे ज़बरदस्ती बात करती रही। मैं उसे हमेशा बस यही बात कहती थी कि ज़िंदगी में कभी भी हार मत मानना और कुछ अलग करने की कोशिश करना।
वो हमेशा घरवालों के डर से ना तो मुझ से बात करती थी और ना ही मुझे देखती थी। वो शुरू से सहमी और डरी सी रहती थी। धीरे-धीरे दोनों परिवार के बीच बातचीत होने लगी, मैं हमेशा की तरह उसके घर जाया करती थी। हम दोनों साथ में ही कॉलेज में दाख़िला करवाए। दोनों और करीब हो गए, हमारी दोस्ती और गहरी हो गयी। मैं उसके बिना कहीं जाना पसंद नहीं करती थी।
लेकिन कहते हैं ना कि ज़मीन और आसमान कभी नहीं मिलता और ना कभी मिलेगा। हम दोनों की सोच बिलकुल अलग थी। ये भी सोचने की बात है कि हम दोनों फिर भी इतने अच्छे दोस्त कैसे थे? ये सवाल हम दोनों एक दूसरे से किया करते थे।
हम दोनों का इंटर पूरा हुआ और हम दोनों उसमें पास हो गए। फिर बी.ए. में दाख़िला लिए। हमारा साथ आना, साथ जाना थोड़ा कम हो गया क्योंकि उसने जिस विषय को चुना उस विषय को मैं नहीं ले सकती थी क्योंकि मेरा मार्क्स बहुत कम आया था। फिर मैंने इतिहास का विषय चुना, लेकिन तब तक उसका सीट भी पूरा हो चुका था। अंत में मैंने सोशियोलॉजी का विषय लिया और अपनी पढ़ाई करने लगी।
मेरी दोस्त पढ़ाई पर पूरा ध्यान देने लगी। मैं पढ़ाई करती थी, लेकिन उसके जैसा नहीं कर पाती थी। इस वजह से उसके परिवार वाले भी बोला करते थे कि वो भी मेरे साथ रहकर पढ़ नहीं पाएगी। मैं हमेशा अपने मन में बस एक ही बात कहती कि मैं पढ़ाई भी कर सकती हूँ और साथ -साथ बहुत कुछ करने की क्षमता भी रखती हूँ।
इसी बीच हम दोनों को एक नौकरी मिल गयी, data entry के कचहरी में। हम दोनों वहाँ जाने लगे। वहाँ पर कुछ दिन तक काम किये, फिर मेरी दोस्त नौकरी छोड़ दी क्योंकि वहाँ पर इंग्लिश में फॉर्म भरना होता था, जो उससे ग़लत हो जाता था। मैं वहाँ लगभग दो साल तक काम की, जिससे मेरे अंदर काफ़ी बदलाव आया। मेरी हमेशा यही कोशिश रहती कि मेरी दोस्त में भी यही परिवर्तन आये और वह भी लोगों स बेझिझक, निडर होकर बात करे। लेकिन मेरी दोस्त की बहन और उसकी माँ मुझे बहुत गलत समझती थी। मेरी दोस्त डर से वो नहीं कर पाती थी जो वो करना चाहती थी।
इसी तरह साल बीतते गए। मेरी दोस्त में जितना मैं बदलाव ला सकती थी, मैंने पूरी कोशिश की। लेकिन कहते हैं ना कि एक हाथ से ना तो रोटी बनती है और ना ही ताली बजती है। मुझे बहुत ख़ुशी मिलती थी, जब कभी-कभी वो मेरी बातों या मेरी हरकतों से प्रभावित हुआ करती थी।
हमारी बी.ए.की भी पढ़ाई पूरी हो गयी। इस दौरान हम दोनों का समय काफ़ी मौज़-मस्ती के साथ गुज़रा। मैं उसे कहीं घुमाने लेकर जब जाती थी, तो मुझे उसके परिवार से बहुत झूठ भी बोलना पड़ता था। हम दोनों साथ में बहुत मस्ती करते थे। लेकिन अब बहुत कुछ बदल गया है, हम दोनों के जीवन में। एक ही साथ एक ही यूनिवर्सिटी में पढ़ती तो हूँ लेकिन मिल नहीं पाती और ना ही उसके घर जा पाती हूँ। बस मैं दूर से ही उसे देखकर एक मीठी सी मुस्कान दे देती हूँ। लेकिन मैं अपनी दोस्ती को हमेशा पूरी दिल से निभाने की कोशिश करती हूँ और हमेशा करती रहूँगी।
Note: 2018 में ब्रेकथ्रू ने हज़ारीबाग और लखनऊ में सोशल मीडिया स्किल्स पर वर्कशॉप्स आयोजित किये थे। इन वर्कशॉप्स में एक वर्कशॉप ब्लॉग लेखन पर केंद्रित था। यह ब्लॉग पोस्ट इस वर्कशॉप का परिणाम है।