क्या पत्नी को थप्पड़ मरना या उस पर हाथ उठाना ही हिंसा है? क्या जब पत्नी बीमार हो तब भी उससे घर के काम कराना, जैसे खाना बनाना, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना, या कपड़े धुलवाना – हिंसा नहीं है?
मैं सदा से किसी प्रकार की भी हिंसा के खिलाफ रहा हूँ किंतु महिलाओं के प्रति हिंसा की इन बारीकियों की समझ मुझ में पहले नहीं थी। यह समझ मुझ में ब्रेकथ्रू से जुड़ने के बाद आई। ब्रेकथ्रू एक स्वयंसेवी संस्था है जो महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ होने वाली हिंसा और भेदभाव को समाप्त करने के लिए काम करती है। मैं ब्रेकथ्रू, उत्तर प्रदेश में एकाउंट्स टीम का सदस्य हूँ। कई लोगों में ऐसी मान्यता है की एकाउंट्स का काम देखने वाले को मुद्दों और प्रोग्राम में रूचि या समझ नहीं होती, या बहुत कम होती है। पर मैं अपने उदाहरण से यह बताना चाहूँगा की ब्रेकथ्रू से जुड़ने के बाद किस प्रकार इन मुद्दों पर मेरी समझ बढ़ी और मेरे निजी जीवन में बदलाव आया।
हिंसा कैसे हमारे दिन प्रतिदिन के व्यवहार में झलकती है इसका एक नया नज़रिया मेरे अन्दर विकसित हुआ और मैंने अपने निजी जीवन में इनके विरूद्ध पहल करनी शुरू की। पिछले एक दो वर्ष में मैंने जो पहल की, उन पर आज मुझे गर्व है। शायद मेरे ये बदलाव छोटे लगें किंतु दो कारण से मैं इन्हें बहुत अहम मानता हूँ। प्रथम तो मेरी ओर से किये इन छोटे प्रयासों से मेरी पत्नी को जो ख़ुशी मिली। दूसरा इनमें से कुछ कार्य ऐसे थे जो सामाजिक मान्यताओं के विपरीत थे और कहीं न कहीं ज्यादातर पुरुषों की तरह मुझे भी पहले यह डर था की मेरे द्वारा ऐसे कार्य करने पर लोग क्या कहेंगे ?
इस सम्बन्ध में पहला उदाहरण है मेरे द्वारा पहली बार खाना बनाने का प्रयास। उस दिन मेरी पत्नी बीमार थी। पत्नी को मैंने उठने से मना किया और स्वयं बेटे, पत्नी और अपने लिए खाना बनाया। पहला प्रयास था इसलिए मेरा प्रत्येक पराठा किसी देश के नक्शे जैसा बना था पर मेरे इस प्रयास के कारण जो मैंने मेरी पत्नी की आँखों में भाव और ख़ुशी के आँसू देखे उनसे यह साफ़ था की इस छोटे से प्रयास ने उसे कितनी ख़ुशी दी। इस अनुभव ने मेरा निश्चय दृढ़ किया की यह तो शुरुआत है – आगे से मैं उसके बीमार होने पर ही नहीं बल्कि दिन प्रतिदिन घर के कामों में उसका बराबरी से साथ देने की कोशिश करुंगा।
मेरा दूसरा उदाहरण है जब मैंने छत पर अपने कपड़ों के साथ साथ उसके भी धुले कपड़े बिना हिचक के फैलाए। जब पुरुष छत पर अन्य लोगों की नज़रों के सामने अपनी पत्नी के कपड़े फैलाते हैं तो प्रायः वे जोरू के गुलाम और न जाने कैसे कैसे मज़ाक के पात्र बनाए जाते हैं। मुझे भी पहले यह डर सताता था की ऐसा करने पर लोग क्या कहेंगे? किंतु ब्रेकथ्रू में जुड़ने के बाद से इस तरह की गलत मानसिकता के विरुद्ध जाने का मुझ में हौसला आया। बराबरी की बात हम कैसे कर सकते हैं अगर हम गलत धारणाओं और मानसिकता के कारण सही काम करने से हिचकते रहेंगे?
आज मैं जब तक घर में रहता हूँ घर के कार्यों को पत्नी के साथ मिलकर करने का प्रयास करता हूँ। शायद अभी भी उसके बराबर घर में योगदान नहीं दे पाता किंतु अब किसी काम को करने में कोई हिचक नहीं रखता, यह नहीं समझता की कोई काम सिर्फ पत्नी की ही ज़िम्मेदारी है या मैं नहीं कर सकता। रसोई के काम हों, बच्चों की देखभाल, अपने या मेहमानों के झूठे बर्तन रखने या धोने की बात हो या पत्नी के कपड़े छत पर फैलाने की बात हो – मैं बराबरी से साथ देने की कोशिश करता हूँ| मैं खुश हूँ इस बदलाव से और गर्व है की किसी तीसरे व्यक्ति द्वारा टिप्पणी या मज़ाक बनाए जाने का मुझे भय नहीं। मैं समझ चुका हूँ की विकृत मर्दानगी से अच्छा है हम बेहतर इंसान बनें, सभी को बराबरी का हक दें चाहे महिला हो या पुरुष।
Sir apke soch bahoot achi hai par aur apne gender quality ke jin barikio ko samjha hai…lagbhag pura desh nahi samjh paa raha hai….