बचपन से ही मैं अपने घर में अपनी दादी, अपनी माँ और घर की अन्य महिलाओं को सुबह मुंह अंधेरे उठकर देर रात तक काम करते देखता आया हूँ। घर के सदस्यों को भरपूर खाने को मिले इसलिए समय से भोजन बनाते हुए, घर के जानवरों को पूरा भोजन मिले उसके लिए चारा लाते हुए, घर पर कोई बाहरी या मेहमान आ जाये तो घर साफ सुथरा मिले इसलिए सफाई करते हुए, ‘’किसके घर के बच्चे हैं?’’- का ताना न मिले इसलिए बच्चों के कपड़े, मुंह, बाल साफ सुथरे दिखने के पीछे की मेहनत करते हुए देखता आया हूँ। खुद बहुत नहीं पढ़ सकी लेकिन बच्चे अनपढ़ या कम पढ़े लिखे न रह जाये उसके लिए सुबह शाम की देखरेख, स्कूल भेजना, पशुओं की साफ सफाई, उनके रहने के जगह की साफ सफाई, खेतो की निराई, गड़ाई, कटाई, फसलो की कटाई, ढोआई से लेकर मड़ाई, रख-रखाव से लेकर अगले सीजन के फसल तक उसको चलाने का हिसाब-किताब करते हुए देखता आया हूँ। बड़ी हो रही बेटी की ज़िम्मेदारी, उसको समाज के तौर तरीके सिखाने की ज़िम्मेदारी, उस पर निगरानी और खुद के जैसे ही सारी ज़िम्मेदारी संभालने वाली ‘’सुशील’’ युवती बनाने की भी जिम्मेदारियों का बोझ उठाते हुए देखता आया हूँ।
कमोबेश यही स्थिति आस-पास के घरो के महिलाओं की भी थी। उस समय से अब तक के समय में, शायद परिस्थितियों में कुछ बदलाव हुए भी हों मगर एक चीज़ अभी भी नहीं बदली है, वह यह “तुम्हें काम ही क्या है? तुम दिन भर करती ही क्या हो? तुम्हें क्या पता बाहर काम करने में कितनी परेशानियाँ है?” जैसे सवाल और सोच। अगर पुरुषों के काम के घंटो और महिलाओं के कार्य के घंटो की तुलना की जाये तो आप आसानी से समझ सकते हैं कि दोनों में कितना फर्क है। एक पुरुष कि दिनचर्या सुबह सूरज निकलने के बाद या अपवाद स्वरूप सूरज निकलने से थोड़ा पहले शुरू होता है और थोड़ा सा रात चढ़ने पर अधिकांशतः भोजन के उपरांत कुछ आधे घंटे बाद समाप्त हो जाता है। इन घंटों में उनकी ज़िम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ अपने लिए समय देने का होता है, उस समय को भी पूरा करने में भी कही न कही 40% हिस्सेदारी तो महिला की ही होती है जैसे यह सामान कहाँ है, वह कहाँ है, यह तो मिल ही नहीं रहा है, इसको बुलाओ, उसको बताओ, यहाँ रखो, वहां से उठाओ वगैरह वगैरह। और यदि समय से न मिले, या थोड़ी देर हो जाये तो तुम्हें तो कुछ पता ही नहीं होता है। मगर इन सब के बीच कुल काम का वक्त तो 6 से 7 घंटे ही होते है, लेकिन महिलाओं का क्या? उनका तो काम ही नहीं खत्म होता है, शायद आराम के लिए समय भी ना मिले अगर रात ना हो और थोड़ी देर सोने की मज़बूरी ना हो कि फिर उठकर इसी चक्र को दोहराना है।
शायद शहरी परिदृश्य में थोडा बहुत फर्क देखने को मिल जाये क्योंकि कई परिवार एकल हैं और कुछ समझदार पुरुष अपने घर में महिलाओं के साथ मिलकर घर के कामों में हिस्सेदारी कर रहें है, लेकिन ज्यादातर मामलों में एक चीज ज़रूर सुनने को मिल ही जाती है कि देखो तुम्हारा काम था, मैंने कर दिया। मतलब इतना अहसान से लाद देते हैं कि महिलाएं सोचने लगती है कि काश थोडा समय निकाल कर यह कार्य भी कर लिया होता। कुछ तो इसी ताक में रहते है कि काम शुरू करें और कोई कहे “अरे रहने दो, मैं कर लुंगी” और वह तुरंत किनारे हो जाये और बाद में बोले मैं तो कर रहा था, तुमने ही मना कर दिया।
तो क्या घर में कार्य कर रही महिलाओं के कामों की कोई गिनती नहीं है? या नहीं होना चाहिए? मुझे लगता है कि अब हमें अधिक गहराई से इसका विश्लेषण करने की ज़रुरत है। जो पुरुष, लड़के घर में रह रही, काम कर रही महिलाओं का आंकलन इस वजह से कमतर कर रहे हैं कि उसकी ज़िम्मेदारी सिर्फ घर का काम करने की है या अगर वह बाहर भी काम करके आ रही है तो उसे घर का भी काम करना चाहिए क्योंकि उनका काम पहले घर की ज़िम्मेदारी संभालने की है, फिर तो अब वक्त आ गया है इस सोच पर पुनर्विचार करते हुए बदलने की। सोच कर देखिये कि जितना काम, जितनी ज़िम्मेदारियाँ वह संभाल रही हैं, अगर उसकी कीमत को आँका जाये तो शायद हम सब जितना कमाई कर के आ रहे हैं, उसका 65% हिस्सा उसे चुकता करने में ही खत्म हो जाये। आखिर हमें महिलाओं के साथ काम की हिस्सेदारी करने में इतना झिझक, शर्म क्यों है? क्यों हम अपने घर के औरतों के कार्यो को सम्मान देने में कतराते है? अब काम में हाथ बटाना नहीं है बल्कि काम में बराबर की हिस्सेदारी करनी है। जिससे आपके, हमारे घर की महिलाएं अपने लिए समय निकल सके और उसका उपयोग वह जैसे करना चाहे कर सकें। जैसे कि हम आप करते हैं, वैसे ही।