इमारतों से बनी पाठशाला, जहाँ हमने अक्षर ज्ञान की शुरुआत की, ओर दुनिया भर का ज्ञान ग्रहण किया । जहाँ अध्यापकों ने परीक्षाओं का डर दिखाते हुए ,अलग अलग तरीकों से हमें पढ़ाया । पाठशाला में किस समय आना है और किस समय जाना है ये सब तय होता है। इस पाठशाला के अलावा कुछ पाठशाला ऐसी भी हैं जहाँ कोई अक्षर ज्ञान नही सिखाता और ना कोई किताबी ज्ञान । जिसमें कोई आने जाने का समय तय नही होता और न ही उसकी को इमारत नज़र आती हैं। लेकिन इस पाठशाला का वैचारिक ढाँचा बहुत मजबूत है जिसको मात्र हिलाने का प्रयास भी कठिन है। इस पाठशाला में जन्म से ही दाख़िला हो जाता है,और इसमें सारी उम्र पढ़ाई चलती रहती है। पुरुष से मर्द बनाने की पाठशाला का नाम है :- “मर्दानगी की पाठशाला ” जहाँ पर अलग अलग तरीकों से मर्दानगी के पाठ पढ़ाए जाते हैं ओर इसमे किताबी ज्ञान से ज्यादा प्रैक्टिकल सीखने पर ध्यान दिया जाता है।
इस पाठशाला में पुरुषों को मर्द बनाने के लिए, मर्दानगी की दौड़ में दौड़ने के लिए तैयार किया जाता है। सोचने की बात तो ये है कि इस दौड़ के अंतिम चरण का कोई एक पैमाना नही है, जिसको हासिल करके पुरुष अपनी मर्दानगी को साबित कर पाए। ये पैमाने स्थान, समय,सामाजिक, राजनैतिक ओर सांस्कृतिक परिस्थिति के हिसाब से बदलते रहते है । शारीरिक तो कहीं यौनिकता, जाति तो कहीं वर्ग के हिसाब से इसके पैमाने बन जाते है । मर्दानगी के पैमानों को बनाने में अहम भूमिका सामाजिक, सांस्कृतिक मान्यताए ओर मीडिया बख़ूबी से निभा रहे है।अगर हम अपने बचपन की बात करे तो जब एक लड़का रोता है तो उसे ये कह कर चुप कर दिया जाया है की तुम तो शेर बेटे हो , तुम मर्द हो और मर्द कभी रोते नही। बार बार इस पाठ को दोहराया जाता है, ताकि उसे ये पाठ याद हो जाये । फिर सिखाया जाता है कि अपनी बहनों की सुरक्षा करो ,चाहे बहन उम्र में बड़ी ही क्यो न हो।
हमें हमेशा निडर ओर कठोर बनना सिखाया जाता है । हम ये कभी नही कह पाते कि मुझे भी डर लगता है और मुझे भी सुरक्षा की जरूरत है। यौनिकता को लेकर ऐसे पाठ सिखाया जाता है कि यौनिकता को भी हिंसात्मक रूप से देखने और समझने लगते है । इस सब के चलते यौकिनता एक कठिन लड़ाई जैसी लगने लगती है। इतना ही नही जिंदगी भर असली मर्द बनाने के लिए कुछ पुरुषों को मर्दानगी का मानक बना कर एक उदाहरण के रूप में पेश किया है। अगर कोई इस पैमाने तक पहुँच जाए तो ठीक, नही तो “नामर्द” का टैग लगा दिया जाता है।
“नामर्द” के टैग से बचाने का दावा करने वाले अनेक विज्ञापन हम हर जगह देखते है। चाहे सड़क के निकट “मर्दाना ताकत ” के नाम से बने दवा खाने हो या लिंग के साइज को बढ़ाने संबंधी सार्वजनिक स्थलों पर लगे पोस्टर। मीडिया में रोज़ाना हम देखते है कि मर्दानगी को जोखिम और हिंसा रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। विज्ञापनों में हम देख रहे है कि मार्केटिंग के लिए जोखिम भरे तरीकों से असली मर्द की परिभाषा तय की जा रही है और चिंता की बात तो ये है कि ये तरीके दिन-प्रतिदिन ओर कठिन बनते जा रहे है। एक तरफ तो हमारी फिल्मे पुरुषों के लिए मर्दानगी के उदाहरण बनाती है वही दूसरी ओर उत्पादन को बढाने के लिए कंपनियाँ ऐसे विज्ञापन देती है जैसे उनके प्रोडक्ट को इस्तमाल किये बिना पुरुषों की मर्दानगी अधूरी है। फिर चाहे तेज़ रफतार से बाइक चलाना हो या परफ्यूम लगाते ही कुछ भी कर जाने का जौखिम उठाना हो ।भला एक परफ्यूम कैसे मर्दानगी का मानक बन सकता है? सत्ता के इस खेल में ये समझना बहुत जरूरी है कि मर्दानगी की इस पाठशाला से फायदा और नुकसान किसे हो रहा है।
सही बात तो यही है कि पितृसत्ता के अलावा किसी को इसमें कोई फायदा नही है। मर्दानगी पितृसता की जड़ो को मजबूत करने के सहायक है। मर्दानगी की वजह से लड़कियाँ ओर महिलाएं का वस्तुकरण हो रहा है और साथ ही साथ हिंसा भी लगातार बढ़ती जा रही है । लेकिन ताज्जुब की बात तो ये है कि जिस मर्दानगी की दौड़ में पुरूष दौड़ रहे है, ये मर्दानगी पुरुषों को भी प्रभावित कर रही है । इस दौड़ में आगे रहने का दवाब पुरुषों को हीन भावना का शिकार बना रहा है। पुरुषों में भावनात्मक पहलू खत्म हो रहा है, सिर्फ हिंसा और नफ़रत को बढ़ावा मिल रहा है। मर्दानगी की ये पाठशाला पूरे विश्व के लिए बहुत बड़ा खतरा बनता जा रहा है । प्यार ,शांति और इंसानियत के लिए ये जरूरी है कि हम ऐसी पाठशाला को बंद कर दे।
इस तरह की पाठशाला यूँही बन्द नहीं हो सकती। जरूरत है एक ऐसे समाजिक बदलाव/ माहौल की जहाँ लिंग,जाति, समाजिक भेदभाव न हो इसके लिए एक सांस्कृतिक मुहिम की ज़रूरत है ख़ासतौर पर युवाओं को जोड़ने की ज़रूरत है।
हम आपके विचारों से सहमत हैं। किसी भी बदलाव के लिए युवाओं का इन मुद्दों से जुड़ना बहुत ज़रूरी है।