जब भी कामकाजी महिलाओं की बात आती है तो मेरे ज़हन में एक ऐसी तस्वीर आती है जिसमें एक महिला के बहुत से हाथ दिखाए गए हैं। सबसे हैरानी की बात यह है कि हर हाथ कोई ना कोई काम करते हुए दिखाया गया है। कुछ हाथ घरेलू कार्य जैसे सफाई, खाना बनाना और बच्चों की देखभाल करते नजर आते हैं, तो कुछ हाथ नौकरी से जुड़े अन्य कार्य करते हुए दिखाए जाते हैं। उस तस्वीर को देखकर ऐसा लगता है कि महिलाएं बिना रुके, बिना थके हर काम कर सकती हैं जैसे कोई रोबोट हों। क्या वास्तव में ये तस्वीर महिला सशक्तिकरण की सही परिभाषा को बयान करती है? या फिर कामकाजी महिलाओं के रोज़ाना की दिनचर्या की कड़वी सच्चाई, जो महिलाओं पर काम के दोहरा बोझ है उसको बयान करती है?
कामकाजी महिलाओं और कामकाजी पुरुषों की ज़िंदगी में उतना ही अंतर है जितना कि लैगिंक आधार पर मिलने वाले वेतन में है। एक पुरुष सुबह अपने नौकरी के लिए तैयार होता हैं और 8 घण्टे की नौकरी करके शाम को घर आ जाता हैं। सुबह की चाय से लेकर रात के खाने तक की कोई भी ज़िम्मेदारियों में उसकी भागीदारी ना के बराबर हैं। लेकिन दूसरी तरफ एक कामकाजी महिला सुबह की चाय से लेकर रात के खाने तक हर किसी बात के लिए ज़िम्मेदार मानी जाती है। सुबह बच्चों को स्कूल भेजने से लेकर रात को रसोई की सफाई तक हर जगह अपनी भागीदारी निभाती हैं। इस दिनचर्या में उनका ऑफ़िस में किया गया काम और थकान का कोई मायने ही नही रह जाता।
सामाजिक रूप से इस समाज की रूढ़िवादी मान्यता है कि अच्छे परिवार की महिलाएं काम पर नही जाती हैं। लेकिन आर्थिक पहलू को देखते हुए बहुत सी महिलाएं बाहर काम करने के लिए जाती हैं। कामकाजी महिलाओं की आय को कभी महत्व नही मिलता क्योंकि सामाजिक रुप से माना जाता है कि औरतों की कमाई से घर नही चलते। दूसरा हमेशा एक कामकाजी महिलाओं के चरित्र को लेकर बार -बार समाज और परिवार वाले सवाल उठाते रहते हैं।
गौरतलब है कि महिलाएं घरों में जो घरेलू कार्य करती हैं , उन कार्यों का कोई महत्व नही समझा जाता क्योंकि लोगो को लगता हैं कि घर में किया गया कार्य आर्थिक रूप से कोई योगदान नही देता। सही मायने में देखे तो महिलाएं द्वारा किये गए घरेलू कार्य आर्थिक रूप से सीधा- सीधा योगदान देते हैं। लेकिन सामाजिक तौर पर घरेलू कार्य करना महिलाओं की ही मुख्य ज़िम्मेदारी मानी जाती है। परिवारों में आज भी किसी महिला को तब तक बाहर कार्य करने देते है जब तक की उसका असर घरेलू कार्यो पर नही पड़ता। जब नौकरी की वजह से कोई महिला घरेलू कार्यों को नही कर पाती तो परिवार को इस बात से समस्या होने लगती है।
भारत विकास रिपोर्ट -2017 में विश्वबैंक ने सुझाव दिया है कि अर्थव्यवस्था में अधिक महिलाओं की भागीदारी से देश में दोहरे अंक की वृद्धि सुनिश्चित की जा सकती है। विश्वबैंक की रिपोर्ट के अनुसार हम महिलाओं की सुरक्षा और उसके सशक्तिकरण की कितनी ही बातें क्यों न करें, मगर सच्चाई यह है कि 21 वीं शताब्दी में भारत में महिलाओं की स्थिति में खास परिवर्तन नहीं आया है। भारत में उन महिलाओं को ज्यादा परेशानियों का सामना करना पड़ता है, जो घर से बाहर निकलकर नौकरी करती हैं। सार्वजनिक स्थानों में यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। वे हिंसा की भी शिकार होती है। इसके अलावा नौकरी करने के लिए महिलाओं को पति से इजाज़त लेनी पड़ती है।
एक तरफ हम अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी को सुनिश्चित कर के देश के विकास का सपना देखना चाहते हैं, लेकिन कामकाजी महिलाओं के साथ हो रहा भेदभावपूर्ण व्यवहार पर बात नहीं करना चाहते। यह किये बिना किसी भी प्रकार के विकास संभव नही है। महिलाओं को एक जैसे काम के लिए भी पुरुषों से कम वेतन मिल रहा है और इसके साथ साथ रोज़ाना यौनिक हिंसा का शिकार भी होना पर रहा है। सिर्फ यही पर उनकी परेशानियां खत्म नही हो जाती, ऑफिस के बाद घर के सारे काम की ज़िम्मेदारी महिलाओं को मानसिक और शारीरिक रूप से तोड़ देती है। दौहरे काम की मार से जूझ रही महिलाओं को स्वास्थ्य सेवाएं भी समय पर उपलब्ध नहीं होती और बीमारी के हालात में भी उन्हें काम करना पड़ता है।
क्या हम इसी को आर्थिक रूप से महिलाओं का सशक्तिकरण का मानक मान रहे है? देश की अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी को तभी सुनिश्चित किया जा सकता है जब घरों में घरेलू काम में पुरुषों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए। घरों में बचपन से ही लड़कों को घरेलू काम के प्रति जागरूक और ज़िम्मेदार बनाने की जरूरत है ताकि बड़े होकर उन्हें ये ना लगे कि घरेलू कार्य तो सिर्फ महिलाओं से ही जुड़े हैं। बहुत ज़रुरत है कि हम घरों में पुरुषों को घरेलू काम में काम का साथी बनाए तभी कामकाजी महिलाएं काम के दोहरे बोझ स मुक्त हो पाएंगी।
Of course we hv double burden of work n hv more responsibilities towards office, home, society n there is no social security for women in India. Everywhere we r helpless n harassed by family n society.
Agreed. We should carry the weight equally.
Ek mhila hi jo sb kuch badl skti h ek admi jb chota hota h to sbse phle ma hi uski guru hoti h vhi shicha uske jivan me sanskar hota h ek aurat hi h jo bacho me bhed bhav ko dur kr skti h ki ladke ye kam nhi kr skte ladkiya gar ki jimedari nibhati h samaj me mhila ki isthiti me sudhar mhila khud la skti h