मेरी शादी को 21 साल हो गए हैं। इन सालों, मैंने अपने पति के साथ बहुत उतार चढ़ाव देखे हैं पर एक रिश्ता जो आज भी वैसा ही है, जैसा पहली मुलाकात में था, वो है मेरा और मेरी माँ का। नहीं नहीं, मैं इनके कोख से पैदा नहीं हुई हूँ फिर भी ये मेरी माँ ही हैं, मेरी सास। (आगे इन्हे माँ से संबोधित करुँगी।)
ये उन दिनों की बात है जब मैं अपना पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रही थी। जब मेरी पढ़ाई ख़तम होने ही वाली थी, वे मुझसे मिलने आयी अपने बेटे के कहने पर। वो मेरे साथ ही रहीं हॉस्टल में। मुझे लगा ही नहीं की मैं उनसे पहली बार मिल रही हूँ।
साल भर बाद दोनों परिवार की रज़ामंदी से शादी हो गयी और ससुराल वालों ने शादी की खुशी में पार्टी रखी थी। मेरे घर से सभी आये थे। मेरी छोटी दीदी जो मेरी बेस्ट फ्रेंड थी और हैं, वो भी आयी थीं। वे मेरे स्वभाव से वाक़िफ़ थी इसलिए माँ से कहीं, “मेरी बहन बहुत स्पष्ट बात करती है जो की कई बार कड़वी भी होती हैं, पर दिल की बहुत साफ़ हैं इसलिए किसी भी बात का बुरा मत मानियेगा।” माँ हंस कर बोली, “बेटा आप बेफिक्र रहो, मैं अपनी कोई बात उसपर थोपूंगी नहीं, फिर लड़ाई की कोई गुंजाईश ही नहीं रह जाएगी।”
मैंने माँ से कहा था, हम दोनों पहले औरत हैं और बाद में सास बहु। अगर ये बात हम याद रखें तो हमारे बीच कभी लड़ाई नहीं होगी। आज 21 साल हो गए हैं और हमारे बीच कोई मन मुटाओं नहीं हुआ है। जैसे जैसे वक्त बीतते गया, हमारी दोस्ती पक्की होती गयी। माँ मेरे साथ अपने सारे सीक्रेट्स शेयर करती हैं, अपनी मन की बात मुझे बताती हैं।
मेरी ज़िद्द से ज़िंदगी में पहली बार उन्होंने nighty पहनी। उन्हें मेरे साथ बाज़ार जाना पसंद है क्योंकि बेटे और पति के साथ मन खोलकर शॉपिंग नहीं कर पाती हैं। वे कहती हैं अब उन्हें घर पर सब कहते हैं – “बहुएं आने पर बात करना सीख गयी हैं।”
उन्हें पूजा पाठ करना बहुत पसंद है और मैं बिलकुल विपरीत हूँ। उनका कहना है कि मैं जो नारीवाद की बातें उन्हें बताती हूँ वो उनसे सहमत हैं पर इस उम्र में वो खुद को बदल नहीं पाएंगी। परन्तु मैं वहीँ करूँ जिसके लिए मेरा मन सहमति देता है।
मेरा मंदिर न लगाना, चूड़ी न पहनना, अपनी मन मर्ज़ी के कपड़े पहनना, सब उन्हें मंज़ूर है। वे मुझे टोकती नहीं हैं। उनका उनके बेटे से कितनी भी लड़ाइयां क्यों न हो, उसका हमारे रिश्ते पर कभी असर नहीं पड़ता। उन्हें इस बात का पूरा विश्वास है की और कोई उनके साथ हो न हो, मैं उनका साथ ज़रूर दूंगी।
उनकी शादी बहुत ही कम उम्र में हो गयी थी और वो माँ भी बन गयी थी – 4 बच्चों की। आर्थिक परिस्तिथियों के कारण उन्हें अपनी इच्छाओं का बलिदान देना पड़ा था। हमारे पितृसत्तात्मक समाज में यही तो सिखाया जाता है – पति और बच्चों की खुशी में ही एक औरत की खुशी होती है। मैंने उन्हें जब अपने लिए जीने के लिए प्रेरित किया तो पहले बार अपने शादी की सालगिरह पर उन्होंने अपने सहेलियों के साथ बाहर रेस्ट्रॉन्ट में पार्टी किया। मुझे बहुत अच्छा लगा।
मेरी एक दिली तमन्ना है की मैं एक पूरा दिन उनके साथ बिताऊं। खाना, पीना, शॉपिंग, मस्ती और कोई नहीं, बस मैं और माँ। मैं चाहती हूँ की वे एक दिन सिर्फ खुद के लिए जियें और वो सब करें जो पति, बेटे और समाज के डर से मन में दबाके रखी होंगी।
“औरत ही औरत की दुश्मन है” एक पितृसत्ता का कथन है क्योंकि दो औरत की लड़ाई का फायदा सबसे ज़्यादा पितृसत्ता को ही तो है!