बचपन से ही मैने अपनी चाची को घर के और चाचा को बहार के काम करते देखा है। चाची सुबह सवेरे उठ कर नाश्ता तैयार करती और चाचा एंव बच्चों के लिए दुपेहर का लंच पैक करती थी। चाचा उठकर नाश्ता करते और सीधा काम पर चले जाते थे। उनके काम पर जाने के बाद चाची पहले तो घर के सभी काम पुरे करती उसके बाद वो फैक्ट्री चली जाती थी, जहाँ वह कपड़ों से धागे निकालने का काम करती थीं। 10 से 6 बजे तक की ड्यूटी के बाद वो भागमभाग में घर पहुँचती और घर पहुँच कर सबसे पहले कुछ देर बच्चों के साथ बैठती और फिर उन्ही घर के कामों में लग जाती जिस से निकल वो काम पर गयी थीं। शाम का खाना बनाने, कपड़े धोने एंव अन्य घर के कामों में कब रात हो जाती थी पता भी नही चलता था। इस बीच चाचा काम पर से आते और उन्हें उनके बेड पर पहले चाय पहुँचाई जाती और उसके बाद खाना दिया जाता। बस यूँ ही दिन ख़त्म होता, दुसरी सुबह आ जाती और फिर वही सब शुरू हो जाता, ज़िन्दगी ऐसे ही गुज़रती रहती।
चाची के इतना सब कुछ करने के बाद भी चाचा अक्सर छोटी-छोटी सी बातों पर उनके साथ मारपीट करते थे और चाची उस हिंसा को बिना विरोध किये चुपचाप सहती रहती थी। मैं अक्सर देखता था की वो इतना थक जाती थी कि कभी –कभी खाना भी नही खा पाती थी। उनके बीमार होने पर मैनें उन्हें अपने लिए दवाई ख़रीदने के बजाए बच्चों के पढ़ने लिए कॉपी – किताब खरीदतें हुए देखा है।
उन्हें जॉब करते देख मुझे बहुत ख़ुशी होती थी। यह बात उन्हें सबसे अलग बनाती थी। पर इस ख़ुशी ने तब दम तोड़ दिया, जब मुझे पता चला कि उनकी सैलरी पर भी उनका नियंत्रण नही होता। वो कमाती ज़रूर थी पर उनकी कमाई पर उनका कोई अधिकार नही था। चाचा ही सब खर्च करते थे, सैलरी आते ही उनके हाथ से सारे पैसे चले जाते थे और वह चाह कर भी अपने लिए कुछ खर्च नही कर पाती थी। ये सब मुझे बड़ा विचलित करता रहता था।
मैं अक्सर सोचता था, क्या उनके कोई सपने नही हैं? क्या उन्हें आराम नही चाहिए होता? क्या एक महिला की यही जिंदगी है? इसके लिए मैनें कुछ लोगों से बातचीत की पर उन्होंने जो जवाब दिए वो मुझे बहुत हैरान करने थे। उन्होंने मुझसे कहा पैसे खर्च करने की सही समझ पुरुषों में ही होती है। महिलाएं बस घर के काम अच्छे से कर सकती हैं, बाहर की उन्हें कोई समझ नही होती है, इसलिए पैसों पर पुरुषों का ही नियंत्रण होना चाहिए। उन्होंने ये भी बताया कि महिला के कुछ अच्छे गुण व् लक्षण होते हैं कि वह घर और बाहर का काम दोनों ही संभाले और अपने परिवार की ख़ुशी और शांति के लिए अपने पति की हर बात माने, यहाँ तक की बहार काम करने के लिए पति से इजाज़त ले। यही एक अच्छी महिला की निशानी है।
फिर धीरे- धीरे मुझे अहसास हुआ कि ये कहानी सिर्फ़ एक घर की नही है, अधिकतर कामकाजी महिलाएं इस दोहरी मार से पीड़ित हैं। वह दिन रात अपने वजूद के लिए इस समाज से लड़ रही है। आज रोज़गार के हर क्षेत्र में महिलाएं पुरुषों का वर्चस्व तोड़ रही हैं। खासकर व्यवसायिक शिक्षा प्राप्त महिलाओं के काम का दायरा बहुत बढ़ा है। महिलाएं शिक्षा, पत्रकारिता, कानून, चिकित्सा और इंजीनियरिंग के क्षेत्रों में उल्लेखनीय सेवाएं दे रही है, पुलिस और सेना में भी वे ज़िम्मेदारी निभा रही हैं। लेकिन कामयाबी के बावजूद परिवार से जो सहयोग उन्हें मिलना चाहिए, वह नहीं मिल रहा है। ज़्यादातर महिलाओं को पेशेवर ज़िम्मेदारियों के साथ ही घर की ज़िम्मेदारी भी उठानी पड़ती है।
इन ज़िम्मेदारियों को उठाते हुए जब वो घर से निकल कर ऑफिस तक जाती हैं और ऑफिस से घर आती हैं तब उन्हें किस-किस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता हैं ये किसी से छुपा नही है। आये दिन हम महिलाओं और लड़कियों के साथ घर से लेकर सार्वजानिक स्थानों और कार्यस्थलों में होने वाले यौन उत्पीड़न के बारे में सुन और पढ़ रहे हैं। विशेषज्ञों की माने तो कामकाजी महिलाओं की स्थिति ‘दो नावों में सवार’ व्यक्ति के समान होती है क्योंकि एक ओर उसे कामकाज का तनाव झेलना पड़ता है तो दूसरी ओर उसे घरेलू मोर्चे पर भी परिवार को खुश रखने की ज़िम्मेदारी निभानी पड़ती है जिससे उनके स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ता है।
कारोबारी संगठन एसोचम (Assocham) द्वारा किए गए एक सर्वे से पता चलता है कि मां बनने के बाद अधिकतर महिलाएं नौकरी छोड़ देती हैं। सर्वे के मुताबिक 40 प्रतिशत महिलाएं अपने बच्चों को पालने के लिए यह फैसला लेती हैं। स्वास्थ विशेषज्ञों के अनुसार ऑफिस और घर संभालने की दोहरी ज़िम्मेदारी के कारण तनाव बढ़ता है और बीमारियाँ पैदा होती हैं।अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा करने के चक्कर में महिलाएं अक्सर अपनी सेहत को नज़र अंदाज करती है । आंकड़ो की माने तो 78 फीसदी कामकाजी महिलाओं को कोई ना कोई बीमारी हो जाती है । 42 फीसदी को पीठदर्द, मोटापा, अवसाद, मधुमेह, उच्च रक्तचाप की शिकायत है। इसी सर्वे के अनुसार कामकाजी महिलाओं में दिल की बीमारी का जोखिम भी तेजी से बढ़ रहा है । 60 प्रतिशत महिलाओं को 35 साल की उम्र तक दिल की बीमारी होने का खतरा है। दोहरी ज़िम्मेदारियों के बोझ के चलते तनाव एवं अन्य स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से घिर चुकी महिलाओं को अब अपने लिए समय निकालने की ज़रुरत है और उनके घरवालों को भी घर के काम की कुछ ज़िम्मेदारियों को निभाने/लेने की ज़रूरत है।
बदलते वक्त ने महिलाओं को आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक रूप से सशक्त किया है और उनकी हैसियत एवं सम्मान में वृद्धि हुई है । इसके बावजूद अगर कुछ नहीं बदला तो वह है महिलाओं की घरेलू ज़िम्मेदारी। खाना बनाना और बच्चों की देखभाल अभी भी महिलाओं का ही काम माना जाता है। यानी अब महिलाओं को दोहरी ज़िम्मेदारी निभानी पड़ रही है। इन महिलाओं को अपने कार्यक्षेत्र और घर, दोनों को संभालने के लिए ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही है । कई महिलाएं घर और ऑफिस के बीच सामंजस्य बिठाने में दिक्कत महसूस करती है और बाद में नौकरी छोड़ देती हैं। उनके अनुसार पुरा दिन ऑफिस में, घंटो ट्रेन-ऑटो में और इसके बाद घर के कामकाज के बीच तालमेल बिठाना मुश्किल होता है। अगर परिवार के अन्य सदस्य भी घर की ज़िम्मेदारियाँ आपस में बांट ले तो महिलाओं का दोहरा बोझ थोड़ा कम हो सकता है और पुरे परिवार के लिए एक सुखमय जीवन का निर्माण हो सकता है ।
आज समाज में जगरूकता लायी जा रही है सैकड़ों सामाजिक संगठन इस बदलाव की दिशा में काम कर रह हैं, आप भी बदलाव का साथी बनकर अपने घर परिवार को खुशहाल बनाने में सहयोग दे सकते हैं। पति-पत्नि एक गाड़ी के दो पहियों के समान हैं, दोनों को समानता से आगे बढ़ते रहने की बहुत ज़रूरत है । उन्हें घर से बाहर तक की सभी ज़िम्मेदारियों को आपस में बाँटना चाहिए, इसी से हम बेहतर कल की उम्मीद कर सकते हैं।