आज हमारा पूरा देश कोरोना वायरस की भयंकर बीमारी से जूझ रहा है। किसी ने सोचा भी नहीं था की यह महामारी इतनी तेजी से फैलेगा की किसी को संभलने का मौका भी नहीं मिलेगा। इस महामारी से बचने का एक ही उपाय हैं कि हम सभी अपने घरों में रहें, खुद भी सुरक्षित रहें और दूसरे भी सुरक्षित रहें। लेकिन यह लॉकडाउन महिलाओं के लिए दोहरी समस्याएं और बंदिशें लेकर आया है।
कुछ लोगों के लिए घर पर रहना इतना कठिन हो जायेगा कि लोग हिंसा पर उतर जायेंगे कभी सोचा नहीं था। जी हाँ, आप ने सही पढ़ा है। एक तरह जहाँ लॉकडाउन इस महामारी से निकलने में मदद कर रहा है वही दूसरी ओर यह लॉकडाउन लोगों को हिंसा करने एवं बढ़ावा देने में पूर्णतः सहयोग कर रहा है। इस लॉकडाउन के दौरान सभी की परेशानी बढ़ गयी हैं लेकिन इन परेशानियों का अधिक बोझ महिलाओं के द्वारा उठाया जा रहा है। लॉकडाउन से पहले की बात करें तो महिलायें घर पर रहती थी और अपनी दिनचर्या में व्यस्त रहती थी, जहाँ पर वह थोड़े समय के लिए खुल कर सांस लेती थी और स्वयं के लिए कुछ समय निकाल पाती थीं। मैं ऐसा इस लिए कह रही हूँ क्योंकि स्वतंत्र तो महिलायें पहले भी नहीं थी लेकिन घर ही एक ऐसी जगह थी जहाँ महिलायें पति और बच्चों के बाहर जाने के बाद कुछ समय अपने बारे में सोचती थी और अपनी मर्ज़ी से काम करती थी। लेकिन इस लॉकडाउन में ऐसी परिस्थियाँ बन गयी हैं कि अब वह अपने घर में भी स्वतंत्र नहीं हैं।
कोई ऐसा है जो उनकी पूरी दिनचर्या पर अपनी टकटकी लगाये हुऐ हैं। उन कामों को उन्हें सिखा रहा है जो वह वर्षो से करती आयी हैं और इन परिस्थितियों में औरतें किसी प्रकार की मदद की उम्मीद भी उनसे नहीं कर सकती हैं। अगर वह ऐसा करती है तो यह बहुत बड़ा जुर्म माना जायेगा। इन सब के बावजूद वह महिलायें जिन्हें घर से निकलने की अनुमति नहीं थी, ऐसी स्थिति में घर के समान एवं बाकी ज़रूरतों की वस्तुओं के लिए उन्हीं औरतों को बाज़ार भेजा जा रहा है। अगर हम कामकाजी महिलाओं की बात करें तो वर्क फ्रॉम होम तो उनके लिए एक सज़ा है जिसमें उन्हें घर, बच्चे, पति सभी की ज़रूरतों को देखना है और ऑफिस का काम भी समय पर खत्म करना है। इन सब के बीच अगर वह पति से थोड़ी मदद की उम्मीद करें तो पति की तरफ से यह सुनने को मिलता हैं कि वह ऑफिस का काम कर रहा है। यह सुनते ही वह फिर से भाग-भाग कर अपने बचे कामों को पूरा करने में लग जाती है। परन्तु महिलाओं द्वारा दोहरी ज़िम्मेदारी उठाने के बावजूद उनके काम को कभी शाबाशी नहीं मिलती है।
इन सब के बावजूद अगर पति को खाना या उनका काम पसंद नहीं आए तो उनकी खरी -खोटी अलग से सुनने को मिलती है और जब इस से भी उनका मन नहीं भरता तो वह अपनी ताक़तों की आज़माइश करते हैं। यह सभी प्रताड़नाओं को औरत चुप-चाप सहती हैं। इन सभी परिस्थितियों में महिलायें मानसिक और शारीरिक रूप से हिंसा का शिकार हो रही हैं। घर के कामों में सहयोग करना पुरुषों की मर्दानगी पर सवाल उठाता है। परन्तु रात में अपनी पत्नी के साथ जबरन शारीरिक संबंध बनाना उन्हें मर्दाना लगता है।
यह सभी बातें लॉकडाउन के दौरान खबरों में अपनी पकड़ बना रखी हैं। इन खबरों को पढ़ कर मैं सोच में पड़ जाती हूँ कि क्या घर की ज़िम्मेदारी केवल महिलाओं की है? पुरुषों की घर एवं बच्चों के प्रति कोई ज़िम्मेदारी नहीं? और इन सब के बावजूद औरतों पर ही इतनी बंदिशें क्यों? जब इन सारी बातों पर विचार करती हूँ तो मुझे एक ऐसे समाज का आभास होता है जो मर्दानगी को सर्वोपरि मानता है। वैसी मर्दानगी जो पुरुषों को महिलाओं पर शासन एवं उन्हें प्रताड़ना देने का अधिकार प्रदान करता है और पुरुषों को अपने दोस्तों एवं रिश्तेदारों के समक्ष यह बताने में गर्व महसूस होता हैं कि वह अपनी पत्नी को अपने अनुसार रखते हैं, जैसे वह कोई वस्तु हो। मेरा मानना हैं कि पुरुषों के द्वारा महिलाओं को बंदिशों में रखना पुरुषों को सुख की अनुभूति प्रदान करता है। यह सुख भावना उसी प्रकार है जिस प्रकार हम किसी जानवर को अपनी कैद में रख कर अनुभव करते हैं।
हमारा समाज पितृसत्तात्मक समाज है जो हमेशा से ही महिला के ऊपर सत्ता दिखाकर अपनी सत्ता मजबूत बनाए रखने की कोशिश करता रहा है। पुरुष के मन में हमेशा यह बात चलती रहती है की कोई उनकी मर्दानगी पर कोई सवाल न खड़ा कर दे, इस को कायम रखने के लिए महिलाओं के साथ हिंसा करते रहते हैं और अपनी ताकत का एहसास दिलाते हैं। लेकिन यह एक कमज़ोर और सड़े गले समाज की निशानी है न कि एक स्वस्थ और बेहतर समाज की। अगर हमें एक स्वस्थ समाज बनाना है तो पुरुषों को भी घर के काम में बराबर ज़िम्मेदारी उठानी चाहिए एवं औरतों के विचारों का आदर करना चाहिये।