आज पूरी दुनिया में कोविड-19 एक भयंकर आपदा बनकर टूट पड़ा है और इसने पूरी दुनिया की गति को थाम सा दिया है। जो जहाँ था वो वहीं पर रूक गया है। दुनिया भर की सरकारों ने एहतियात के तौर पर अपने अपने देशों में लॉकडाउन घोषित कर दिया है। अभी इस महामारी का कोई वैक्सीन नहीं है। इस आपदा से बचने के लिए सबसे ज़रूरी है कि हम सब घर पर रहें और कम से कम बाहर जाएं।
यह एक ऐसी स्थिति आ खड़ी हुई है जिसके बारे में हमने कभी सपनों में भी नहीं सोचा था। जिस घटना के बारे में हम सपनों में भी नहीं सोचते, क्या वह घटना घटने पर उस स्थिति के अनुसार हम स्वयं को सामान्य रख सकते हैं? शायद नहीं, या फिर कुछ समय तक बहुत मुश्किल होता है।
अभी हमारे सामने स्थिति आ खड़ी हुई है कि हम अपने को घरों की देहलीज़ तक सीमित रखें। अब मैं देख पा रहा हूँ और जो दोस्तों के फोन आ रहे हैं उससे मुझे समझ आ रहा है कि पुरूषों के लिए स्वयं को घर की देहलीज़ में रखना थोड़ा मुश्किल हो रहा है। मेरे घर और आस पड़ोस की महिलाएं पुरूषों से ज़्यादा सामान्य हैं। उन्हें बीमारी का डर तो सता रहा है लेकिन घर में रहने वाली बात उनके लिए एकदम सामान्य प्रतीत हो रही है।
पड़ोस की एक बुज़ुर्ग महिला कह रही थीं, “हमने घरों की चारदीवारी में पूरी उम्र गुज़ार दी, आप लड़के बीस दिन नहीं रूक सकते”। यह बात शायद किसी को मामूली नज़र आए लेकिन मेरे लिए इस बात के बहुत बड़े मायने हैं। ये छोटी सी टिप्पणी हमारे सामाजिकरण की प्रक्रिया को दिखाती है। ये बातें मुझे मेरे बचपन में ले जाती हैं जब मैं बाहर गली में चोर-सिपाही का खेल खेलता था और मेरी बहन घर के बर्तन साफ कर रही होती थी। जब मैं आराम से बैठकर पड़ोस के घर में टी. वी. देख रहा होता था और मेरी बहन घर में झाड़ू लगा रही होती थी। मैं दोस्तों के साथ मटरगश्ती में गलियों में घूम रहा होता था और मेरी बहन खाने की तैयारी कर रही होती थी।
उदाहरण कितने ही दिए जा सकते हैं। ये उदाहरण सिर्फ मेरे और मेरी बहन के नहीं हैं, ये उदाहरण हर उस लड़के-लड़की के हैं जिनका पितृसत्ता के चलते अपनी पैदाइश से ही अलग अलग तरीके से पालन-पोषण हुआ है। लैंगिक आधार पर लड़कियों को उनके मूलभूत अधिकारों से वंचित कर दिया गया है। अधिकारों से ही वंचित नहीं किया गया बल्कि लड़कियाँ और महिलाएं कमज़ोर होती हैं इस सोच का सामान्यीकरण कर दिया गया है। महिलाएं क्या करेंगी? क्या पहनेंगी और कहां जाएंगी? यह सबकुछ निर्धारित कर दिया और ये बहुत ही योजनाबद्ध तरीकों से किया गया है।
आज हमें उन योजनाबद्ध तरीकों को समझने और सिखने की ज़रुरत है जिसने महिलाओं को घर की चार दीवारों में कैद कर दिया। जब हम ग़ुलाम बनाने वाली सामाजिकरण की प्रक्रिया को समझ जाएंगे तभी हम बराबरी के समाज निर्माण के लिए बेहतर प्लानिंग बना पाएंगे। वैकल्पिक संस्कृति को खड़ा करने में सक्षम होंगे।
यह हम सभी के लिए एक मुसीबत की घड़ी है। आज हम पुरूषों के पास घर में करने और सिखने के लिए बहुत से कार्य हैं। हम खाना बनाना, कपड़े धोना और छत्त पर (भेदभाव किए बिना कि य कपड़े महिला के हैं या पुरूष के) सुखाना, बर्तन साफ करना, प्रैस करना, कपड़ों को अच्छे से सहेज कर रखना, झाड़ू-पौंछा करना, रसोई में तरीके से बर्तन लगाना, बच्चे के टायलेट करने पर उसे साफ करना, घर के प्रत्येक सदस्य की क्या क्या जरूरत हैं और उनकी क्या आदतें हैं जानना आदि कार्य – कर और सीख सकते हैं। लेकिन जब भी हम इंसान बनने की कोशिश करते हैं तभी कहीं से सुनाई देता है ये तो जोरू का गुलाम है, ये नामर्द है जो औरतों वाले काम करता रहता है! कई बार घर की महिला या फिर पुरूष ही घरेलू कार्य को करने से रोक देते है।
हम जागरूक पुरूषों को वर्षों से चली आ रही इन भेदभाव पूर्ण विचारों का खंडन करना होगा। ठीक उसी तरह, जिस तरह जागरूक महिलाओं ने प्रत्येक कार्य क्षेत्र में मौका मिलते ही अपने आपको साबित किया है। उन्होंने उन बने बनाए रास्तों पर चलने से मना कर दिया है जो पितृसत्ता द्वारा बनाए गए थे। और यह इतना आसान नहीं रहा, इन सबके लिए उन्होंने जितनी लड़ाईयां घर से बाहर लड़ी हैं, उससे कई गुना ज़्यादा लड़ाईयां अपने घरों में लड़ी हैं। आओ, हम सभी पुरूष इस मुसीबत की घड़ी का इस्तेमाल वर्षों से चली आ रही भेदभाव पूर्ण रूढियों को तोड़ते हुए आगे बढ़ें। जब हम उन सभी कार्यों को सिखना शुरू करेंगे और इस नतीजे पर पहुँचेंगे कि घर के कार्यों की ज़िम्मेदारी सिर्फ महिलाओं या लड़कियों की ही नहीं, हम सबकी है, शायद तब हमें कब समय बीत गया इसका पता भी नहीं चलेगा और हम एक सच्चे इंसान की तरह अपने आपको पेश कर पाएंगे।
मैं एक समतामूलक समाज का पक्षधर रहा हूँ। इन कठोर परिस्थितियों में मुझे और ज़्यादा महसूस हो रहा है कि यदि बचपन से ही मुझे भी घर के कार्यों में भागीदार बनाया जाता तो शायद आज घर पर रहते हुए मुझे यह समस्या महसूस नहीं होती कि घर पर चौबीस घंटे कैसे गुजारें? हाँ, इससे अलग समस्याएं ज़रूर हो सकती हैं। अब यह हमारे उपर निर्भर करता है कि हम खुद को एक इंसान बनाने की प्रक्रिया में शामिल करेंगे या फिर सदियों से चली आ रही मान्यताओं पर चलते हुए भेदभाव पूर्ण समाज को और मजबूत करते हुए घड़ी की सुइयों की ओर देखकर समय गुजारेंगे ।