भारत सहित 193 देशों ने सितंबर 2015 में संयुक्त राष्ट्र महासभा की उच्च स्तरीय पूर्ण बैठक में स्वीकार किया गया एजेंडा 2030 में 17 सतत विकास लक्ष्यों को रखा था। सतत विकास लक्ष्यों में लैंगिक समानता को भी शामिल करना इस बात को पुख्ता करता है की लैंगिक समानता कितनी ज़रूरी हैं। सतत विकास बिना लैंगिक समानता और लैंगिक समानता के बिना सतत विकास संभव नही है।
महिला और पुरुष एक समाज रूपी गाड़ी के दो पहिये हैं। समाज रूपी गाड़ी तभी आगे जा सकती है जब दोनों पाहियों में समानता हो। समानता एक सुंदर और सुरक्षित समाज की वो नीव है जिस पर विकास रूपी इमारत बनाई जा सकती है। लैंगिक समानता के बीच मे भेदभाव की सोच समझकर बनाई गई एक खाई है ,जिसको तय कर समानता तक जाने का सफर बहुत मुश्किलों से भरा हुआ है।
हमारे देश में लिंग आधारित भेदभाव बहुत व्यापक स्तर पर काम कर रहा है। जन्म से लेकर मृत्यु तक शिक्षा से लेकर रोज़गार तक हर जगह पर लैंगिक भेदभाव साफ साफ नजर आता है। इस भेदभाव को कायम रखने में समाजिक और राजनैतिक पहलू बहुत बड़ी भूमिका निभाते है। वर्ल्ड इकनोमिक फोरम द्वारा 2017 के ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स की बात करे तो भारत 144 देशों की सूची में 108 नंबर पर आता हैं। इस रैंक से हम साफ तौर पर अंदाजा लगा सकते है कि हमारे देश मे लैगिंक भेदभाव की जड़ें कितनी मज़बूत और गहरी हैं।
रोज़गार के क्षेत्र में लैंगिक भेदभाव को दूर करने के लिए समान पारिश्रामिक अधिनियम, 1976 लागू किया है, लेकिन कानून लागू होने के बाद भी रोज़गार के क्षेत्र में लैंगिक भेदभाव की खाई की गहराइयों को स्पष्ट रूप से मापा जा सकता है। मॉन्स्टर सैलरी इंडेक्स के 2016 के आंकड़ों पर नज़र डाले तो समझ आता है कि एक जैसे कार्य के लिए भी भारत में महिलाएँ 25% कम वेतन पाती है। रोज़गार के अलग अलग क्षेत्र में लैंगिक भेदभाव आधारित वेतन में अन्तर भी अलग-अलग हैं। सूचना एवं तकनीकी क्षेत्र से लेकर मनोरंजन के क्षेत्र तक, हर जगह पर महिलाओं को पारिश्रमिक से जुड़े भेदभाव का सामना करना पड़ता हैं। एक तरफ तो वेतन में हो रहा भेदभाव और दूसरी तरफ महिलाओं के काम को कम आंकना, समानता के आड़े आता है। ना केवल असंगठित क्षेत्र बल्कि संगठित क्षेत्र भी भेदभाव पूर्ण व्यवहार से जकड़ा हुआ है।
अगर बात करे मनोरंजन के क्षेत्र की तो अभिनेत्रियों को भी इस भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। फिल्मों में कभी भी अभिनेत्रियों को मुख्य नही समझा जाता और उन्हें पारिश्रमिक भी अभिनेताओं से कम मिलता है। इस समस्या पर बहुत सी अभिनेत्रियों ने अपनी नाराज़गी को भी जाहिर किया है। अभिनेत्री सोनाक्षी सिन्हा ने भी इस भेदभाव पर कहा, “आजकल की महिलाएं अपने अधिकारों को लेकर काफी मुखर हैं और मैं सिर्फ फिल्म उद्योग में ही बदलाव नहीं चाहती, बल्कि खेल या व्यापार या किसी भी अन्य पेशे में महिलाओं के लिए समान वेतन चाहती हूं।” मनोरंजन जगत के अलावा भी ऐसे बहुत से क्षेत्र है जहाँ पर असमान वेतन की समस्या से महिलाएं जूझ रही हैं।
जब भी कहीं सड़को का निमार्ण हो रहा होता तो चेतावनी के तौर पर लिखा होता है कि गाड़ी धीरे चलाएं ,” Men at Work”. हालांकि उस निर्माण कार्य में महिलाएं भी कार्य कर रही होती हैं। फिर भी हम महिलाओं के काम के महत्व को बहुत सफाई से नकार देते हैं। इसी प्रकार अगर हम उन महिलाओं की बात करें जो कपड़े सिलाई का काम करती हैं तो वो भी लैगिंक भेदभाव का शिकार होती आ रही है। एक तरफ तो उन्हें दर्ज़ी के रूप में स्वीकार नही किया जाता, दूसरी तरफ पुरुषों के मुकाबले कम पारिश्रमिक मिलता है। गाँव हो या शहर ये भेदभाव पूर्ण अभ्यास हर जगह पर हो रहा है। अगर हम खेलों की बात करें तो वहाँ भी भेदभाव कुंडली मार कर बैठा हुआ है। खेलों में मिलने वाली ईनामी राशि महिला खिलाड़ियों को कम मिलती हैं। चाहे कुश्ती हो या क्रिकेट हर खेल में भेदभाव का समीकरण काम करता है। एक खास बात ओर ये भी है कि पुरूषों के खेलों का प्रसारण भी महिलाओं के खेलों से ज्यादा है।
एक तरफ तो हम विश्व स्तर पर सतत विकास में लैंगिक भेदभाव को दूर करने की बात कर रहे हैं। दूसरी तरफ लैंगिक भेदभाव की जड़े समाजिक और राजनैतिक कारणों से मज़बूती पकड़ रही हैं। ऐसे में क्या हम लैंगिक समानता की मंज़िल तक पहुँच कर विश्व मे सतत विकास का सपना पूरा कर पाएंगे? एक शांतिपूर्ण और सुंदर विश्व की कल्पना बिना लैंगिक समानता के नही की जा सकती। जब तक लैंगिक समानता नही होती तब तक एजेंडा 2030 का पूरा होना मुश्किल ही नही नामुमकिन हैं।