हे सखी !
क्या तुमने स्वाद को देखा है।
बोलो ना ! चुप क्यों हो!
क्या तुमने स्वाद को देखा है!
हां मैंने देखा है,
मैंने देखा है फलों का रस भरा स्वाद,
भोजन का स्वाद, पीने का स्वाद…
चल झूठी!
स्वाद तो वो लेते हैं,
जो अक्सर हमें सार्वजनिक स्थानों पर,
गली और नुक्कड़ पर झुंड बनाए खड़े मिलते है,
जब घबराई, दांत पीसती हम
एक शोर के डर को अपने अन्दर दबाए हुए
अपनी आग लेकर वहाँ से गुजरती है,
उनके ठहाकों का जवाब दिये बिना।
तब वो कहते है!
अब आया स्वाद…
वाह!… स्वाद आ गया।
जब हमें
सामान, माल, गंडासा (एक तेज़ हथियार)
जैसे नामों से पुकार कर भद्दे व्यंग कसे जाते है,
तब आता ये स्वाद ।
जिसे मां-बाप, रिश्तेदार, समाज
सब इकट्ठा होकर ढोल-नगाड़ों के साथ बांध देते हैं,
उसके साथ जो आता है, सौ लोगों के साथ घोड़ी पर चढ़कर,
जानती हो!
उसके बाद जो वो करता है,
हमें दर्द है, तकलीफ है,
हम से बर्दाश्त नहीं होता।
और
यह समाज उस पीड़ा को
महसूस भी नहीं कर सकता।
यह वह स्वाद है
वह सारी उम्र ही स्वाद लेता है।
कभी सीधे, कभी उल्टे कभी टेढे
तो कभी ऊपर, कभी नीचे।
उनके लिए तो वह स्वाद है,
पर यह 2 मिनट का ही स्वाद है
और
हमारे लिए?
हम उस स्वाद का बोझ ढोती हैं।
पहले नौ (9) महीने
और फिर
ताउम्र…..
उनके स्वाद से हम औरतें मां बनती हैं,
लेकिन ! वह बाप नहीं बनते,
उनके लिए वह स्वाद की ही एक परंपरा है।
वो उम्र-भर इस स्वाद को चखते रहते है,
और
हम इसमें अपना जीवन तलाश लेती हैं,
इन स्वाद लेने वाली पीढ़ियों को
हम ही सृजन शालाओं में बदल देती है,
इनकी वंश बेल को बढ़ाना, अपनी ज़िम्मेदारी का हिस्सा मान लेती है,
हमारे लिए ये ज़िम्मेदारियाँ,
इस सृष्टि को बनाए रखने का एक चक्र मात्र रहती है,
और
कभी-कभी प्यारा एहसास,
और मातृत्व में लिपटा प्रेम ।
ऐ सखी!
ये जीवन चक्र है,
जिसे जीने और समझने के सबके अलग नज़रिए है,
ये सच है कि जीवन बेस्वाद तो नही है,
पर जब हमारी मानसिकता जीवन जीने के मर्म को
नीजता के स्तर से शुरु करती है तो
कुछ जिंदगियों का स्वाद बेस्वाद भी हो जाता है।
पता नहीं,
तुम स्वाद को समझ पायी या नही,
पर तुम्हें भी अपने जीवन के मर्म में
याद जरुर आ गया होगा,
“स्वाद”