मैंने बचपन से यही देखा है कि महिलाओं को दोयम दर्जे का माना जाता है। यह बात मुझे बचपन से ही बुरी लगती थी। मेरी माँ हमेशा से पुरुषवादी समाज की पीड़िता रहीं। मेरे मन में तभी से यह सोच विकसित हुई कि ये असमानता क्यों? इस क्यों का जवाब आज तक मुझे मुकम्मल तौर पर नहीं मिला है। जब तक मैं मिडिल स्कूल में था तब तक मुझे ऐसे विचारों को नाम देने के लिए शब्द नहीं थे। जब मैं सीनियर्स क्लास में आया तो पता लगा फेमिनिज्म, नारीवाद भी कोई शब्द होता है। महिलाओं के लिए आवाज़ उठाना बचपन से ही मेरी आदतों में शुमार था। मैंने हमेशा ऐसे विचार हर जगह साझा किए। स्कूल में अगर मुझे कभी फंक्शन में कुछ कविता और कोई टॉपिक के लिए भाग लेने के लिए बुलाया जाता तो मैं वहाँ पर भी महिलाओं को ले आता। स्कूल की महिला टीचर्स मेरी तारीफ़ करतीं और पुरुष टीचर मेरा मज़ाक उड़ाते। मैंने फेमिनिस्ट शब्द सबसे पहले अपनी क्लास टीचर से ही सुना था। अपने लड़के दोस्तों से जब मैंने इन बातों की तह तक जाने का विचार किया तो मुझे निराशा ही हाथ लगती। मुझे नहीं पता था कि समाज में पितृसत्ता की हवा है। ज़्यादातर पुरूष इस हवा के शिकार थे। यहाँ तक कि मेरे पिताजी भी।
सबकी बातों को सुनकर और निरीक्षण कर के मुझे ये पता लगा कि वास्तव में नारीवाद का क्या अर्थ है। नारीवादी होना क्या होता है। कहीं न कहीं मैं फिर भी पूरी तरह से नारीवादी होने का मतलब तब तक नहीं समझ पाया था। जो टीचर्स से सुना वही दिल में बैठ गया। जैसे, नारीवादी सिर्फ औरतें हो सकती हैं, नारीवाद का मतलब है घर में सिर्फ महिलाओं का राज। ऐसी ही न जाने कितनी हास्यस्पद बातें, जिनको मैं आज सोचता हूँ तो हँसी आ जाती है। कुछ ऐसे ही और मिथक हैं:
नारीवाद केवल महिलाओं का अधिकार है।
समाज में पितृसत्तात्मक सोच का अधिक बोलबाला है। पितृसत्ता में असमानता का चेहरा नज़र आता है। जहाँ महिलाओं को कमतर आंका जाता है। वहीं दूसरी ओर अगर हम बात करें तो नारीवाद होने का मतलब ये बिल्कुल नहीं है कि ये सिर्फ महिलाओं के द्वारा और महिलाओं के लिए ही निर्धारित किया जाता है। नारीवाद वास्तव में समानता का प्रतीक है जिसमें मानवता की भूमिका भी प्रभावशाली है। नारीवाद के मुख्य आयाम यहीं हैं कि समाज के हर एक क्षेत्र में समानता हो। यहाँ ये बिल्कुल भी नहीं दर्शाया जाता कि किसी अन्य लिंग को एक दायरे में बाँध दिया जाए। पितृसत्ता का हम सबके ज़िंदगी पर असर पड़ता है, चाहे हम एक औरत हों या मर्द या कोई भी इंसान जो पितृसत्ता के नियमों के हिसाब से ज़िंदगी नहीं जीता।
नारीवाद पुरुष समुदाय के ख़िलाफ़ एक षड्यंत्र है, एक साज़िश है।
यह कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। मैंने ग्यारहवीं कक्षा में अपने गेम के टीचर से यही सुना कि पुरुषों को नीचा दिखाने के लिए महिलाओं ने एक मुहिम चलाई है। उन्होंने इस मुहिम का नाम ही नारीवाद रखा। मैंने उस समय बात को सुना और कई महीनों तक सोचता रहा। जैसे जैसे समाज को समझता रहा मेरे मन से ये सब भ्रांतियां दूर होती गईं। नारीवाद किसी भी लिंग को प्राथमिकता नहीं देता, बल्कि इसमें समानता का ही समावेश है। यहाँ बात यही आती है कि अगर कोई पुरूष अपने मन के मुताबिक जॉब कर रहा है तो महिलाओं को भी यही हक़ मिलना चाहिए, अगर पुरूष किसी के नियंत्रण में नहीं रहना चाहते तो महिलाओं को भी नियंत्रित नहीं किया जाना चाहिए। यह पुरुषों के दिमाग के द्वारा पनपी एक असुरक्षा की भावना है जिसका कोई हल नहीं।
नारीवादी पुरुष अपने खुद के लिंग पर संशय पैदा करवाते हैं।
अक्सर नारीवादी विचारधारा वाले पुरुषों को समलैंगिक कहा जाता है। इस तथ्य में भी पितृसत्ता का असर देखने को मिलता है। नारीवादी कोई भी हो सकता है इसमें किसी के लिंग का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं। जो समानता अपनाता है वह ऐसी किसी भी विचारधारा को नहीं स्वीकार करेगा जो असमानता के आधार पर हो। नारीवाद भी समानता का ही एक अंग है। समाज में आज भी नारीवादी पुरुषों को पितृसत्तात्मक समाज इसी नज़रिये से देखता है जैसे उसको अपने लिंग पर संशय हो। ऐसे में उनको थोड़ा इतिहास में जाने के लिए ज्ञान देना चाहिए। मुंशी प्रेमचंद जी, राजा राम मोहन राय, ज्योतिराव फुले, ईश्वरचंद्र विद्यासागर आदि। ये सब भी नारीवादी महापुरुष थे। यह नाम मैंने इसलिए दिए ताकि समाज समझ सके पितृसत्तात्मक संस्कृति को ख़त्म करने में पुरुषों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। और यह पितृसत्तात्मक सोच ही है जो समलैंगिक लोगों को शर्म की नज़र से देखता है। समलैंगिक होने को भी नीचा समझा जाता है इसलिए इस शब्द को गाली की तरह इस्तमाल किया जाता है।
नारीवादी समाज पुरुषों से घृणा करता है।
एक यह तथ्य है जो अक्सर लोग इसको समझने में काफी समय लगा देते हैं। नारीवाद किसी को नीचा दिखाने के बारे में बिल्कुल नहीं है। यह लैंगिक समानता को मुखर रूप से प्रदर्शित करता है। यह ऐसा बिल्कुल भी नहीं है जैसे लोग अक्सर समझते हैं कि नारीवाद एक लिंग को दूसरे लिंग से ज़्यादा बेहतर है। यहाँ किसी भी लिंग को प्राथमिकता नहीं दी जा सकती। हाँ, नारीवाद के अंतर्गत यह बात सामने ज़रूर आती है कि पुरुषों द्वारा पैदा की गई समस्याएं महिलाओं को किस हद तक नुकसान पहुँचाती हैं। पुरुषवाद में लैंगिक असमानता को काफी हद तक मान्यता प्राप्त होती है।
देश की स्वतंत्रता के बाद नारीवाद आवश्यक था मगर वर्तमान में इसकी कोई ज़रूरत नहीं।
वास्तव में अगर देखा जाए तो महिलाओं को जो महत्वपूर्ण अधिकार मिले हैं वह सभी नारीवादी आन्दोलनों की ही देन हैं। जैसे वोट देने का अधिकार, महिलाओं के लिए समान वेतन और गर्भनिरोधक और गर्भपात जैसे प्रजनन अधिकारों सहित कई लाभ प्रदान किए हैं। लेकिन आज भी दुनिया के कई हिस्सों में महिलाओं को उनके लिंग के आधार पर हाशिए पर रखा जाता है। आज भी उनकी वही स्तिथि है जो स्वतंत्रता पूर्व थी। आज भी महिलाएं असमानता की शिकार हैं। तो यह कहना गलत ही होगा कि आज ऐसे आन्दोलनों की ज़रूरत नहीं जो हमको समानता की दिशा दिखाते हों।
उपर्युक्त जितने भी तथ्य हैं यह मेरे अनुभव पर आधारित हैं। मैं बचपन से ही समानता के पक्ष में रहा हूँ। फिर चाहे वो महिलाओं के लिए हो या फिर किसी भी हाशिए पर आँके जाने वाले लिंग, जाति, आदि। समानता समाज का सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है जिसमें मानवता का समावेश है। इसी का एक अंग है नारीवाद। मैं इसके पक्ष में जब से हूँ, जब मुझे इस शब्द का मतलब भी नहीं पता था। मेरा समाज की सभी इकाईयों से निवेदन है कि आप सभी समानता का साथ दें। तभी आप मानवता का साथ दे पाएंगे।