कहते हैं कि महिलाएं समाज का एक बहुत महत्वपूर्ण व ज़रूरी हिस्सा हैं जिनके बिना समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पर क्या वास्तव में महिला को समाज का हिस्सा माना जाता है? महिलाओं ने शुरू से ही अपने अस्तित्व व अधिकारों को पाने के लिए बहुत सी लडाईयाँ लड़ी हैं, बहुत सी यातनाएँ झेली हैं। बहुत लम्बे समय के बाद महिलाओं को कानून का साथ मिला ओर पुरूषों के समान अधिकार मिले, पर मुझे कई बार लगता है की आज महिलाओं के अधिकार तो बहुत हैं पर मिलते कितने हैं या महिलाएं अपने अधिकार समाज से ले कितने पा रही है, इसका पता नही है।
मैं सोनीपत में कम्युनिटी प्रोग्राम के समय एक महिला से मिला। उन्होंने कहा की लड़कियाँ पैदा नहीं होनी चाहिए। मैंने उन से बातचीत की तो पता चला की उनकी लड़की के साथ बहुत गलत हुआ है ओर उनकी किसी ने कोई सहायता नहीं की, ना कानून ने ना ही समाज ने। उन्होंने अपनी बेटी के जीवन की कुछ धटनाएं साझा की और उनकी बात सुनकर मुझे ये महसूस हुआ की समाज में आज भी महिलाओं के अधिकार,समानता,बराबरी आदि नहीं हैं। केवल कानूनी किताबों में समानता होने से समानता नहीं मिलती।
उन्होंने बताया की उनकी बेटी की शादी के बाद उनकी बेटी को ससुराल में बहुत परेशान और मारा-पीटा गया। सभी ने मिलकर उसको पागल घोषित कर दिया ओर बाद में उसको घर से निकाल दिया। आज कल वह अपनी मां के साथ रहती है। भाई भाभी को वह बोझ लग रही है, मां परेशान है कि वह कब तक उसकी देखभाल करेगी। उसको ससुराल में इतना पिटा गया की आज उसका मानसिक संतुलन ठीक नहीं है। उसके सर को इतना पिटा गया है की थोड़ी सी आवाज़ होने पर वह डर जाती है। लड़की की मां कहती है की लड़की का दुख क्या होता है कोई मुझसे पुछे, मैं कभी नहीं चाहती की लड़की पैदा हो। सब कानून धरे धराये रह गये हैं। महिला की कोई नहीं सुनता, ना कोई कानून ना कोई समाज।
महिलाएँ अपने अधिकारों का सही इस्तेमाल नहीं कर पाती। अदालत जाना तो दूर की बात है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि महिलाएँ खुद को इतना स्वतंत्र नहीं समझती कि इतना बड़ा कदम उठा सकें। जो किसी मजबूरी में (या साहस के चलते) अदालत जा भी पहुँचती हैं, उनके लिए कानून की पेचीदा गलियों में भटकना आसान नहीं होता। इसमें उन्हें किसी का सहारा या समर्थन भी नहीं मिलता है। इसके कारण उन्हें घर से लेकर बाहर तक विरोध के ऐसे बवंडर का सामना करना पड़ता है जिसका सामना अकेले करना उनके लिए कठिन हो जाता है। इस नकारात्मक वातावरण का सामना करने के बजाय वे अन्याय सहते रहना बेहतर समझती हैं। कानून होते हुए भी वे उसकी मदद नहीं ले पाती हैं।
आमतौर पर लोग आज भी औरतों को दोयम दर्जे का नागरिक ही मानते हैं। कारण चाहे सामाजिक रहे हों या आर्थिक, परिणाम हमारे सामने हैं। आज भी दहेज के लिए हमारे देश में हज़ारों लड़कियाँ जलाई जा रही हैं। रोज़ न जाने कितनी ही लड़कियों को यौन शोषण की शारीरिक और मानसिक यातना से गुज़ारना पड़ता है। कितनी ही महिलाएँ अपनी संपत्ति से बेदखल होकर दर-दर भटकने को मजबूर हैं। संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों के अलावा भी समय-समय पर महिलाओं की अस्मिता और मान-सम्मान की रक्षा के लिए कानून बनाए गए हैं, मगर क्या महिलाएँ अपने प्रति हो रहे अन्याय के खिलाफ न्यायालय के द्वार पर दस्तक दे पाती हैं?
साक्षरता और जागरूकता के अभाव में महिलाएँ अपने खिलाफ होने वाले अन्याय के विरुद्ध आवाज़ ही नहीं उठा पातीं। शायद यही सच भी है। भारत में साक्षर महिलाओं का प्रतिशत 54 के आसपास है और गाँवों में तो यह प्रतिशत और भी कम है। जो साक्षर हैं, वे जागरूक भी हों, यह भी कोई जरूरी नहीं है। पुराने संस्कारों में जकड़ी महिलाएँ अन्याय और अत्याचार को ही अपनी नियति मान लेती हैं और इसीलिए कानूनी मामलों में कम ही रुचि लेती हैं। हमारी न्यायिक प्रक्रिया इतनी जटिल, लंबी और खर्चीली है कि आम आदमी इससे बचना चाहता है। अगर कोई महिला हिम्मत करके कानूनी कार्रवाई के लिए आगे आती भी है, तो थोड़े ही दिनों में कानूनी प्रक्रिया की जटिलता के चलते उसका सारा उत्साह खत्म हो जाता है।
अगर तह में जाकर देखें तो इस समस्या के कारण हमारे सामाजिक ढाँचे में नजर आते हैं। महिलाएँ लोक-लाज के डर से अपने दैहिक शोषण के मामले कम ही दर्ज करवाती हैं। संपत्ति से जुड़े हुए मामलों में महिलाएँ भावनात्मक होकर सोचती हैं। वे अपने परिवार वालों के खिलाफ जाने से बचना चाहती हैं, इसीलिए अपने अधिकारों के लिए दावा नहीं करतीं। उन्हें इस अत्याचार, अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठानी होगी। साथ ही समाज को भी महिलाओं के प्रति अपने दृष्टिकोण में बदलाव लाना होगा। वे भी एक इंसान हैं और एक इंसान के साथ जैसा व्यवहार होना चाहिए वैसा ही उनके साथ भी किया जाए तो फिर शायद वे न्याय पूर्ण और सम्मान जनक जीवन जी सकेंगी।