हम सभी जानते है कि हमारा समाज एक पुरुष प्रधान समाज है। पुरुष प्रधानता को बनाए रखने के लिए पुरुष एक रक्षक और निर्णायक की भूमिका को अदा करते हैं और इस पुरुष प्रधानता को निभाने के लिए महिलाएँ पुरुष प्रधानता के सभी नियमों का पालन करती हैं। पुरुष अपने परिवार के लिए आजीविका कमाता हैं और उससे परिवार की सभी महिलाओं, बच्चों और परिवार सदस्यों इत्यादि का खान-पान से संबंधित सभी ज़िम्मेदारी को पूरा करते हैं। यह सब भी पितृसत्ता का ही एक पड़ाव है जिसमे पुरुषों द्वारा बनाए गए नियम जैसे महिलाएं कमज़ोर होती है, पुरुषों पर आश्रित होती हैं, उनकी अपनी कोई पहचान नही होती इत्यादि को माना जाता रहा है। ऐसे नियम अभी तक समाज मे प्रचलित है जो महिलाओं की भूमिका या उनके अस्तित्व और पहचान को खत्म करते हैं।
यदि महिलाएं घर से बाहर जाएंगी या काम करने के लिए घर से बाहर रहेंगी तो उनकी सुरक्षा का क्या होगा? ये सभी प्रश्न जो पितृसत्ता की तरफ उठते हैं ये सब भी महिलाओं को पुरुष प्रधानता के लिए बाधित करते हैं। या ये कहें कि महिलाओं को वे कार्य नही करने चाहिए जिसमें उनकी सुरक्षा नही है के पीछे छिपे, पुरुषों का डर है कि यदि महिलाएं ये सब कार्य करने लगी तो पुरुषों की प्रधानता या पितृसत्ता के ऊपर बात उठेगी।
हकीकत तो ये रही है कि महिलाएं कृषक के रूप में भी कार्य करती है पर अगर अभी भी सोचे या पूछे तो कृषक तो पुरुषों को माना जाता है। महिलाएं सड़क निर्माण में काम करती है मगर बोर्ड पर लिखा होता है “Men at WORK”। वो घर के निर्माण में काम करती है, वो घर से बाहर आँफिस में जा कर काम करने लगी है, मगर अभी तक पहचान से अछूती है।
अगर वो घर पर भी काम करती है तो भी उनके काम को सराहा नही जाता बल्कि कहा जाता है कि सारा दिन घर पर रह कर तुमने क्या किया? पितृसत्ता के चलते अभी तक औरतों को बराबरी का दर्जा नही मिल रहा है समाज मे, अभी तक पुरुषों को ही इस भूमिका में देखा जा रहा है।
कम्युनिटी वर्क के लिए मैं गाँव मे गया जहाँ पर एक महिला सरपंच है। मगर मीटिंग के दौरान उनके पति से हमारी भेंट हुई जिनसे पूछने पर पता चला कि वह ही सरपंची का सभी काम देखते है। उनका कहना था कि उनकी पत्नी आज सरपंच उनकी वजह से है क्योंकि उनकी पत्नी को इस गाँव मे कोई नही जानता है और उनकी पहचान और उनकी गाँव की भलाई के कार्यों के वजह से ही उन्हें सरपंच बनाया गया है।
अभी भी महिलाओं को वो सम्मान नही मिल रहा है जिसकी वह हक़दार है। वो किसी भी मुकाम को हासिल करें परन्तु अभी भी असल मे वो उस मुकाम पर कार्य नही कर पा रही है जिससे उनकी पहचान पालनहार या मुख्या की बन सके। पितृसत्ता व पुरूष प्रधानता के चलते में भी ऐसे नियमों से बाधित हुआ हूँ। शिक्षा संस्थानों में शिक्षक के रूप में आपको महिलाएं व पुरूष दोनों ही देखने को मिलते हैं। जन्म के बाद माँ ही बच्चे की पहली गुरु/शिक्षक होती है। सरकार के द्वारा भी कई प्रोग्राम शुरू करने के बावजूद अभी तक शिक्षा संस्थानों में अभी तक महिलाओं की भूमिका/पहचान दर्ज नही की जाती है।
ये वाक्य मेरी जीवन मे कुछ दिन पहले का है जब हमारे बेटे तन्मय के स्कूल से एक कागज़ आया था जिसमे लिखा था कि पहचान कार्ड के लिए फॉर्म को भरना था, जिसमे कुछ कॉलम दिए थे। वही मैंने पहचान कार्ड के लिए कॉलम 2 में पिता यानी अपना नाम भरा और अपनी पहचान के साथ साथ मैने कॉलम 2(a) माता का नाम बना कर भरा। यह देख पितृसत्ता में पले बढ़े सभी सदस्यों ने यह प्रतिक्रिया जतायी कि आप इस फॉर्म को खराब मत करो और इस पर यह लिखने की कोई आवश्यकता नही है; सभी जगह पिता का नाम ही चलता है। उस समय में मैं भी अशक्त रह गया कि उनके बात पर क्या प्रतिक्रिया करूँ। पितृसत्तात्मक समाज मे रहने के कारण मेरे पास भी उस समय कहने को कुछ नही था मगर अभी तक मेरे मन मे यही बात है कि मैं उनको कैसे समझाऊ कि एक बराबरी का समाज वो है जहाँ महिलाओं को सम्मान मिले जिसकी वो हक़दार हैं।