जब मीनू ने ज़मीन पर बिखरी अपनी चूड़ियों को देखा तो उसे ऐसा लगा जैसे वह फिर से वही चौदह वर्ष की मीनू है, अपने पिताजी की सबसे दुलारी बेटी! पर वह साल उसके परिवार के लिए बड़ा कठिन गुज़रा। घर की बड़ी बेटी रेनू ने घर से भाग कर शादी जो कर ली थी। किशोरीलाल जी अब वह किशोरिलाल नहीं रहे थे। गर्व से अपना सीना चौड़ा करके चलने वाले किशोरीलाल अब एक हारे हुए खिलाड़ी कि तरह सामाजिक बोल चाल के मैदान को छोड़ कर घर पर बैठ गए थे। सिर्फ काम पर निकलते और चुप चाप वापस आ जाते। उनकी पत्नी, रेनू और मीनू की माँ, वैजन्ती खुद एक अलग खयाल में उलझी हुई थी। बाहर जो लोग बोल रहे थे वह तो एक बात थी, घर पर अभी एक और बेटी थी। “कहीं मीनू भी ऐसा ना कर दे हमारे साथ!”
मीनू को अपनी बड़ी बहन से विशेष लगाव था। रेनू घर से तो भागी थी पर वह हर महीने एक बार अपनी छोटी बहन से मिलने, एक सहेली के घर ज़रूर आती थी। ऐसे ही एक मुलाक़ात पर, मीनू ने रेनू की हथेलियों को देखा और बोली, “दीदी, क्या मैं भी आप की चूड़ियां पहन सकती हूँ?” चूड़ियां मीनू के हाथों के लिए अब भी थोड़ी बड़ी थी। हाथों से फिसल कर वह चूड़ियां ज़मीन पर बिखर गई। “अरे मीनू, तू अभी भी बहुत छोटी है।”
*
दो साल बाद जब मीनू स्कूल से लौटी, तो उसने घर पर एक अलग माहौल देखा। पिताजी मुस्कुरा रहे थे और अम्मा उसे कहने लगी कि आज उसे चूड़ियां दिलाने ले जाएंगी। मीनू को लगा वह सपना देख रही है। भला ऐसा क्या हुआ था जिससे उसके घर में फिर से ख़ुशी ने दस्तक देनी शुरू कर दी थी?
दो महीने बाद मीनू पराई हो गई। इस बार किशोरीलाल जी ने अपनी तमन्ना पूरी कर ली। लड़का सरकारी नौकरी करता था, साथ ही उसके पिताजी का बड़ा कारोबार था, जिसका वह अकेला वारिस था। ऐसा लग रहा था जैसे किस्मत ने किशोरीलाल पर तरस खा कर दो विदाई की ख़ुशी एक में दे दी। सीना फिर से चौड़ा हुआ और धूम धाम से मीनू को घर से विदा किया गया। इस ख़ुशी ने पहली बेटी की शादी को भी अपनाने का हौसला दिया। रेनू ने ही मीनू को वह चूड़ियां पहनाई।
*
मीनू एक दिन अपने नए घर में एक अजीब से खयाल को टटोल रही थी। “यह चूड़ियां भी कितनी आवाज़ करती हैं। जब गिरती हैं। जब हिलती हैं। जब एक दूसरे से टकराती हैं। इन्हें उतार भी नहीं सकती। इन्हें पहनो तो सब को मेरे एक एक पल का पता चल जाता है।” वह अब मीनू की आवाज़ बन चुकी थी और शायद उन्हीं कि आवाज़ कहीं भी, कभी भी जायज़ थी। रात को। दिन में। हर समय। हर जगह। वह सब देखती। सब सुनती। शायद मीनू के अलावा सिर्फ वह ही मीनू की ज़िंदगी के बारे में सब कुछ जानती थी। जब नौ महीने बाद उसकी ज़िंदगी में एक नन्हा मुन्ना आया, तो उसने सोचा अब इन चूड़ियों को उतार देना चाहिए। बच्चे को चोट ना लग जाए। उस शाम मीनू के सूने हाथ देख जब उसके पति ने उस पर हाथ उठाया तो मेज़ पर रखी चूड़ियां चुप थीं।
*
“मम्मी, आप चूड़ियां मत पहना करो। पापा की डेथ अभी हुई है। क्या सोचते होंगे लोग? सास बन चुकी औरत, पति जाने के बाद किसको स्टाइल दिखा रही है? अपना नहीं सोचती तो मेरा और मेरी फैमिली का तो सोचो! अच्छा लगता है क्या? कोई आपको देख कर बोल सकता है कि आप विधवा हैं? आज से ये सब बंद। थोड़ी शरम कीजिए। आप से नहीं फेकी जाती तो मैं ही फेक देता हूँ।”
बेटे की बात पर मीनू ने कुछ ना कहा। इस बार भी उसकी चूड़ियों ने ही सब बोल डाला।