भारतीय संविधान के विषय में सबसे पहले हम मौलिक अधिकारों की तरफ ही आकर्षित होते हैं और बात अगर मौलिक अधिकार की हो तो समानता शब्द सबसे पहले हमारे दिमाग में उभर कर आता है। समानता शब्द वर्तमान भारत में ही नहीं संपूर्ण विश्व में कुछ धुँधला पड़ता दिख रहा है। इस समस्या का एक बड़ा आधार है – पितृसत्ता।
महिलाओं को सिर्फ घर में काम करने वाली और मात्र प्रजनन का खिलौना समझना एक पितृसत्ता द्वारा बनाई गई अवधारणा है। स्तिथि चाहे कैसी भी हो समाज में पुरुष को प्राथमिकता दी जाती है। हमारे देश के संविधान के अनुसार हम सभी को बराबरी का दर्जा हासिल है, लेकिन असल में जनता को मिलने वाली सेवाएं और सुविधाएँ, युवा, सक्षम और एक विशेष वर्ग से ताल्लुक रखने वाले पुरुषों के लिए अनुकूलित हैं।
हम एक विविधताओं से भरी दुनिया में रह रहे हैं, फिर भी हमारी जनसंख्या का सबसे बड़ा हिस्सा परिवहन, शिक्षा, सुरक्षित कार्य स्थल, शौचालय आदि जैसी बुनियादी सुविधाओं और सेवाओं के लिए संघर्ष कर रहा है। यदि हम बदलाव लाना चाहते तो, बुनियादी सुविधाओं की पहुँच को किसी एहसान की तरह नहीं बल्कि एक मानव अधिकार के रूप में देखना होगा। हमें सुविधाओं और सेवाओं से वंचित इस विशाल वर्ग को साथ में लेकर चलना होगा।
वर्तमान समय में किसी भी पुरुष से पूछें, क्या वह समानता में विश्वास करता है, वह उत्साह से अपना सिर हाँ में हिलाएगा। उसी आदमी से पूछें कि क्या वह एक ऐसे जीवन साथी को चुनेगा जिसे साफ़–सफाई, बर्तन और कपड़े धोना न आते हो, वो सर हिलाना बंद कर देगा। महिला कितनी भी योग्य क्यों ना हो मगर पुरूष खुद के अधिकार उसपर हावी करने से नहीं चूकते। पुरूष को जो विशेषाधिकार विरासत में मिले हैं वह अधिकार पुरुषों द्वारा तथा पुरुषों के लिए ही बनाए गए थे, जिसमे महिलाओं के विकास या उनके सहयोग की बातें न के बराबर हैं।
यह विश्वास कि पुरुष तो स्वाभाविक रूप से आक्रामक एवं कामुक है तथा स्त्री सहज रूप से सहनशील एवं आज्ञाकारी है, अन्य विश्वासों को बढ़ावा देता है जो व्यवस्थित लैंगिक शोषण को न्यायसंगत ठहराता है। इसी तरह यह मानकर कि महिलाएँ प्राकृतिक या स्वाभाविक रूप से माँ होती है तथा एक स्त्री का स्थान घर में है, समाज असंगत रूप से महिला को शिशु के पालन–पोषण, पारिवारिक संबंधों को बनाए रखने एवं उसके घरेलू कार्यों की भूमिका को न्यायसंगत ठहराता है एवं समाज के प्रति उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका से उसे वंचित कर देता है। इन रूढि़बद्ध धारणाओं को बढ़ावा देने में धर्म, मिथक, शैक्षणिक व्यवस्था, विज्ञापन एवं मीडिया का भी सहयोग है।
हम में से अधिकांश लोग एक बेहतर विश्व की संभावना में विश्वास रखते हैं एवं इस दिशा में प्रयासरत भी हैं। परन्तु रूढि़बद्धता एवं विचारधाराएँ हमारी आकांक्षाओं एवं व्यवहार को निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। हम इन विश्वास परंपराओं के साथ सामाजिक होना शुरू कर देते हैं, परन्तु हमे स्वयं एवं दूसरों के जीवन पर इसके पड़ने वाले प्रभावों का मूल्यांकन करने का सामर्थ्य भी होना चाहिए। जब तक कोई भी इन चीजों को भिन्न रूप से देखने का आग्रह नहीं करता, तब तक ये विश्वास परंपराएँ अचेत धारणाएँ ही बनी रहेंगी। यदि हमें विश्व को बदलना है, तो हमें संरचनाओं एवं उनके विषय में हमारी समझ में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है।
बदलाव तभी होगा जब पुरुष अहंकार को एक तरफ रख, पितृसत्ता को चुनौती दें। हमें जो सबसे बड़ी लड़ाई लड़नी है, वह कार्यालयों या बसों या स्कूलों में नहीं, लेकिन अपने घरों में होनी है। हम एक लोकतांत्रिक देश में निवास करते हैं और हमारा संविधान इस बात की इजाज़त नहीं देता की हम भेदभाव में अपना जीवन व्यतीत कर दें।
Great it’s really necessary to think in this way to get rid of from this social phenomena which is root couse of inequality in India. We must b aware n uproot this thought to change d society . It’s not happen in a day but gradual change also mark great impact in Indian society to change. D Standerd n situation of women.