गालियॉं और गलियाँ.

हमारे देश और समाज में किसी खास जाति से संबंध रखने के फायदे और नुकसान हैं। किसी एक जाति द्वारा किसी दूसरी जाति के लोगो के शोषण की कहानियां इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं और साहित्यकारों ने भी इस पक्ष का बार बार अपनी तमाम रचनाओं में ज़िक्र किया है। प्रेमचंद का साहित्य दलित विमर्श से भरा पड़ा है। अंबेडकर, ज्योतिबा फुले और अनेक सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने इस भेदभाव को दूर करने के लिए बहुत प्रयास किये जो आज भी किसी ना किसी रूप में जारी हैं।

इस भेदभाव से मुक्ति के लिए शिक्षा को हमेशा एक महत्वपूर्ण पथ माना गया है और काफी हद तक ये सही भी है। अब 2017 में जब अप्रैल माह को हम #DalitHistoryMonth के रूप में मना रहे हैं और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया के अलग अलग प्लेटफॉर्म पर दलित मुक्ति आंदोलन से जुड़े संघर्षों की कहानियां पढ़ रहे हैं, अपने आप को और अपने अतीत को उससे जोड़े बिना रहना मुझे ठीक नही लगा । जीवन के तमाम कड़वे अनुभव रोज़ आँखों के सामने से ऐसे गुज़र जाते हैं जैसे कल ही की बात हो। हरियाणा जैसे सामंती प्रदेश में पला पढ़ा होने के अनुभव बाकी प्रदेशों से अलग ज़रूर हैं पर अच्छे और सुखद तो नही हैं।

गालियॉं और गलियाँ

बचपन से शुरू करे तो कुछ गालियॉं और गलियाँ अतीत का साया बनकर काफी लंबे समय तक पीछा करती रही जब तक खुद मुक्ति आंदोलनों का हिस्सा नही बने, चाहे वो सामाजिक बदलाव की दिशा में जातिगत भेदभाव दूर करने का हो या फिर लिंग भेदभाव को मिटा कर एक समान एवं सुरक्षित समाज बनाने का अभियान हो। गाँव की कुछ गलियाँ ऐसी थी जहाँ अपने कुत्तों और जाति सूचक गालियों के साथ लोग तैयार रहते थे और अपनी आने वाली नस्लों को भी इसकी तालीम देते थे।

शिक्षा इससे मुक्ति का एकमात्र रास्ता दिखाई देता था। अपने बारे में बात करूँ तो अपने पड़ोस और रिश्तेदारों में सांवले होने के स्टिग्मा और गाँव समाज के किसी खास जाति का होने के स्टिग्मा से पढ़ाई लिखाई में किए गए अच्छे प्रयास और छोटी छोटी उपलब्धि अस्थाई सुकून देने वाले थे।

सरकारी योजनाएं चाहे आरक्षण हो या कोई स्कालरशिप, आस पास के लोगों की नफरत और भेदभाव का कारण दिखाई पड़ती थी। मुझे बचपन का एक किस्सा आज तक याद है। मेरे पिताजी अंबेडकर से काफी प्रभावित हैं और हमारी पढ़ाई के लिए उन्होंने वो सब कुछ किया जो उन्हें जरूरी लगा; माँ के जेवर बेचने से लेकर कर्ज लेने तक या सरकारी योजनाओं का लाभ भागदौड़ करके लेने तक।

90 के दशक में मैन्युअल स्कावेन्जिंग यानि मेला ढोने की प्रथा के समाप्ति के नाम पर मिलने वाले वजीफा एक बड़ी आर्थिक सहायता थी। हालांकि हमारे गाँव में इस काम का प्रचलन नही था फिर भी पिताजी कचहरी से मेला ढोने का प्रमाण पत्र बनवा के स्कूल से हमारे लिए वज़ीफ़े का बंदोबस्त कर लेते थे। हद तो तब हो गयी जब 9वीं कक्षा में टीचर ने मुझसे ये मनवाने के लिए जोर डाला कि तुम्हारे पिताजी सिर पर टट्टी उठाते हैं इसलिए ये स्कालरशिप तुम्हें मिलता था जबकि ये योजना ये काम छोड़ने के लिए पुनर्वास के तौर पे थी।

भेदभाव का समाज में अहसास

बहुत पहले का एक किस्सा मुझे याद आता है। 1990-91 के आस पास नेशनल चैनल दूरदर्शन पर अंबेडकर के जीवन पर आधारित का धारावाहिक(नाटक) आता था जिसमे उनका बचपन दिखाया गया कि कैसे उनके साथ जातिगत भेदभाव होता था। उसके बावजूद उनके संघर्ष ने उनको आगे बढ़ने में प्रेरणा का काम किया । उस वक़्त गाँव में एक या दो घर में टीवी था, हम भी उनके घर टीवी देखने जाते। गर्मी, सर्दी या मच्छर काटे, नीचे ज़मीन पर बैठ के देखना होता था। चारपाई पर नही बैठ सकते थे। कई बार घर का मालिक इधर उधर होने पर उनकी कुर्सी और चारपाई पर बैठ कर अच्छा लगता क्योंकि वो प्रतिबंधित था। प्रतिबंध तोड़ने का अपना मजा था, काफी बाद में पता चला ये प्रतिबंध जातिगत भेदभाव का ही रूप है जिसके बारे में अंबेडकर वाला नाटक था। फिर मैंने जाना छोड़ दिया।

दसवीं कक्षा के बाद पढ़ाई के लिए शहर में रहने की योजना बनी। सुना था भेदभाव सिर्फ गाँव में होता है शहरों में नहीं, ये विश्वास भी वहां जाकर टूट गया। अलग अलग जाति के नाम पर रहने के लिए धर्मशालाएं हैं, आर्थिक और सामाजिक दर्जे के हिसाब से ये भिन्न थी। वहां घुसना भी कई बार ऐसा लगता जैसे चारपाई पे बैठ गए हों जो प्रतिबंधित है।

कुछ दिनों बाद परिवार भी शहर में आ गया। किराये पर मकान खोजने का काम अपने आप में जोखिम भरा था। कहीं भी जाओ सबसे भले पूछा जाता ‘किस जात के हो भाई?’  कोई बिरला ही परिवार मिलता जो जात नही पूछता या जात से ज्यादा किराये से मतलब रखता। कई जगह तो ऐसा भी हुआ कि जात पूछे बगैर मकान दे दिया, जैसे ही घर की सफ़ाई करके सामान रखना चाहा, मकान मालिक को जात पता चल गई और सारी मेहनत बेकार। सामान वापिस उठा के अब नया मकान ढूंढ़ो!

खैर जैसे तैसे आगे बढे, कुछ आंदोलनों से जुड़े जो हर तरह के भेदभाव मिटाने की दिशा में साहित्य और रंगमंच के माध्यम से काम करते रहे, जिसका मुख्य काम दलित और महिला मुद्दों को साहित्य और कला के विभिन्न माध्यमों से समुदाय में ले जाना और दबे हुए मुद्दों पर संवाद करना; न कि दबा रह के वो ज्वालामुखी की तरह विभिन्न घटनाओं और त्रासदियों के रूप में आएं।

बीच बीच में अनेक संगठनों जो जाति विशेष के लिए बने है और उसी जाति के लोग उसमे शामिल हैं से लगातार शामिल होने और दूसरे लोकतांत्रिक और जनवादी संगठनों में शामिल नही होने के उपदेश देते थे और एक कास्ट ओनरशिप में ले जाना चाहते थे । उनसे मुझे दूर रहना ही ठीक लगा। किसी समुदाय के प्रति भेदभाव मिटाने या दलित मुक्ति के लिए काम करने के लिए ज़रुरी नही कि जाति आधारित ही संगठन बनाये जाएँ। मेरा अनुभव ये कहता है कि जब कोई भी आपके जाति या धर्म के बारे में ग़लत बोले तो प्रतिक्रिया सिर्फ इस वज़ह से मत दो कि आप उस जाति या धर्म से संबंध रखते हो। अपनी बड़ी पहचान जो कि मानवता है उसके साथ जियो, उसके अधिकारों की बात करो।

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9 thoughts on “गालियॉं और गलियाँ

    1. Very well said. जो आपने जिया बखूबी बयान किया। यही हमारे महान भारत की सच्ची तस्वीर है। समाज को आइना दिखाने के लिए साधुवाद। गन्दगी मिटाने से पहले गन्दगी को स्वीकार करना जरूरी है। बिना भेदभाव की गंदगी मिटाए हम स्वच्छ भारत बना भी नहीं सकते।

    2. बहुत अच्छा लिखा है आज भी हमारे समाज में जाति के आधार पर छींटाकशी बहुत ज्यादा है, गांवों में ही नहीं शहरों में भी जातिगत भेदभाव चरम सीमा पर है और आपका यह लेख समाज को आईना दिखाने काम काम करेगा।

  1. जातिवाद हमारे देश की कड़वी सच्चाई है जातिवाद पर बात किए बैगर हम बराबरी व समानता की बात कर ही नहीं सकते.

  2. आप सबको धन्यवाद हमारे साथ अपने विचार साँझा करने के लिए ।

  3. Well written. But unless dalits feel that they want change and equality in the soceity no change will take place. Continued struggle against discrimination and sacrifice required to achieve this goal. Simultaneously eeducate the group by availing all the concessions provided by the constitution and realize that who you are?

    1. Thank you for your comment, Rajendran. Of course, one has to question one own’s oppression for any change, but does the onus for change lie on Dalit people or people belonging to upper castes?

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