क्या हम हमारे समाज की पितृसत्तात्मक सोच को तोड़ पा रहे हैं ?.

निर्भया गैंगरेप, 16 दिसंबर 2012, की वो रात  इंसानियत पर एक बदनुमा दाग की तरह है। हैवानियत  के उस रूप को देख कर पूरे देश की रूह कांप उठी थी। एक लड़की के साथ हुई बर्बरता ने महिलाओं और लड़कियों  की सुरक्षा पर बहुत से सवाल खड़े कर दिये और लोगो को सोचने पर मजबूर होना पड़ा कि हम किस समाज का हिस्सा हैं। भारी संख्या में लोग एक जुट होकर हैवानियत के खिलाफ खड़े हुए और अलग अलग तरीकों से  लोगों ने अपना विरोध जताया। कैंडल मार्च से लेकर भूख हड़ताल तक, न्यूज़ पेपर ,न्यूज़ चैनलों से लेकर सोशल मीडिया तक हर जगह इस बर्बरता के खिलाफ आवाज़ उठाई गई।

एक लंबे संघर्ष के बाद  5 मई 2017 को सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दीपक मिश्रा ने अपना फैसला पढ़ते हुए चारों दोषियों की मौत की सजा को बरकरार रखा। सुप्रीम कोर्ट की ओर से निर्भया गैंगरेप मामले में सभी दोषियों को फाँसी की सजा दिए जाने का लोगों ने ज़ोरदार स्वागत भी किया।

लेकिन कैंडल मार्च से सुप्रीम कोर्ट के फैसले तक क्या यौनिक हिंसा पर रोक लग पाई? क्या निर्भया गैंग रेप के बाद देश मे महिलाओं और लड़कियों के लिए सुरक्षित माहौल  बन पाया ? निर्भया केस अंतिम नही था। उसके बाद भी महिलाओं और लड़कियों के प्रति हिंसा कम नही हुई। ऐसा क्यों है की इतना रोष प्रदर्शन के बाद भी ये घटनाएँ कम नहीं हो रहीं? हरियाणा में कुछ दिनों पहले ही  एक महिला के साथ गैंग रेप और हत्या ने निर्भया की घटना के ज़ख्मों  को फिर से ताज़ा कर दिया । निर्भया केस के पांच साल बाद आज भी बर्बरता रुकने का नाम नही ले रही है, बल्कि हैवानियत का रूप और ज़्यादा डरावना होता जा रहा है।

ऐसे अपराधों के विरोध में  सड़को और सोशल मीडिया पर बहुत प्रर्दशन होता आ रहा है । इसके साथ साथ कानून व्यवस्था में दोषियों को कड़ी से कड़ी सज़ा पर भी ज़ोर देने की बात हो रही है । मन में सबसे बड़ा सवाल तो ये आता है कि क्या इसके बाद ऐसी बर्बरता रुक जाती है? विरोध प्रर्दशन और कानून व्यवस्था  ऐसे अपराध रूपी पेड़ की सिर्फ टहनियों को काटने का काम करती है, लेकिन कभी जड़ को काट नही पाते। अगर दूसरे  शब्दों में बात करे तो समस्या की जड़ों पर वार करने की सख्त ज़रूरत है। इस समस्या की मुख्य जड़ है हमारी पितृसत्तात्मक सोच, जिसको तोड़ने की बहुत ज़रुरत है।  हमारे समाज में ऐसे बहुत से घटक है जो पितृसत्ता की जड़ों को और ज़्यादा मजबूत करने में  मदद कर रहे है। इन घटको पर बात किये बिना पितृसत्ता की जड़ों की गहराई को माप पाना भी मुश्किल होगा।

फिल्मों में आज हम ऐसे ऐसे गानों को सुन रहे है  जो महिलाओं और लड़कियों को इंसान से वस्तु बना रहे है । तंदूरी मुर्गी से लेकर पटाका बम्ब जैसे शब्दों ने  महिलाओं का बाज़ारीकरण कर दिया है। इंसान  समझने की बजाय ऐसी फिल्मों और गानों ने सिर्फ महिलाओं को एक उपयोग की वस्तु बना दिया है। इसके चलते ऐसी मानसिकता पैदा हो चुकी है कि कोई भी व्यक्ति जब चाहे ,जहाँ चाहे  महिलाओं को वस्तु समझकर बर्बरता कर रहा है। ऐसी  फिल्मों और गानों का असर लोक गीतों पर भी पड़ रहा है। अगर हरियाणवी गीतों की बात करें तो उनमें महिलाओं और लड़कियों के साथ होने वाली यौनिक हिंसा को साफ साफ देखा जा सकता है।  हैरानी की बात तो ये है कि गीतों में यौनिक हिंसा को लोगो के सामने ऐसे परोसा जाता है कि वो अपराध से ज़्यादा  मनोरंजन लगने लगता है।  

बात सिर्फ फिल्मों और गानों तक नही रुकती, हद तो जब हो जाती है, जब ऐसी घटनाओं के बाद कुछ ऐसे बयान सुनने को मिलते है जैसे “लड़के तो लड़के होते है लड़कों से गलती हो जाती है”; “कभी कभी रेप सही होता है कभी गलत” और “अगर वो हमारी एक लड़की के साथ गलत करेंगे, तो हम उनकी हज़ार लड़कियों को  उठाएंगे”। इस तरह के बयानों से लोगों के मन में बलात्कार जैसे अपराधों के प्रति संवेदनशीलता खत्म होती जा रही है। इसलिए बहुत ज़रूरी  है कि ऐसे बयान देने वाले व्यक्तियों पर कानूनी कार्यवाही की जाए।

एक एशट्रे जिसको महिला आकृति की शक्ल में ढाला गया और जिसमे महिला  की योनि (वजाइना) में सिगरेट बुझाने का इंतज़ाम किया गया था, ऑनलाइन शॉपिंग प्रोडक्ट्स के रूप में हमारे समाज में मौजूद हैं। महिलाओं के मुँह को पेशाब करने के पॉट बना कर एक समाजिक मानसिकता को दिखाया जा रहा है। महिलाओं के मुंह में पेशाब करनेऔर उसकी वजाइना में सिगरेट बुझाने से किस तरह की ताकत को दिखाना चाहते  हैं हम ? एक तरफ न्याय व्यवस्था  को मज़बूत  करने के लिए अनेक बदलाव हो रहे है ,दूसरी तरफ अपराधियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। लेकिन इन सब से पितृसत्ता कितनी टूट रही है, इस पर विचार करने की ज़रुरत है। अगर  ऐसे फिल्में ,गाने ,बयान और  प्रॉडक्ट पर रोक नही लगाई गई जो रेप कल्चर को  बढ़ावा दे रहें है तो ऐसी बर्बरता को रोक पाना  मुश्किल ही नही असंभव हो जाएगा।

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