मेरी ज़िंदगी और समाज का तराज़ू।.

आज फिर मुझे देर हो गई। घर पहुँचने में, फिर देर हो जाएगी। मुझे अपने परिवार से ज़्यादा अपने पड़ोसियों की चिंता हो रही है। वे मुझे फिर घूरेंगे, जैसे रिपोर्टिंग का कार्य को खत्म ना कर बल्कि कुछ गलत कार्य कर के लौटी हूँ। आखिरकार ये पड़ोसी मुझे क्यों घूरते हैं?

मेरा साथी रमेश, जो मेरे साथ काम करता है, संभवतः मेरे और उसके घर आने का समय भी एक ही है, फिर रमेश की नहीं बल्कि मेरी जासूसी करने में क्यों लगे रहते हैं? मैं कब आती हूँ, कब जाती हूँ —- सिर्फ़ इसलिए क्योंकि मैं लड़की हूँ? मेरे समाज ने ये तय कर रखा है कि मैं लड़की हूँ इसलिए मुझे देर रात तक ऑफ़िस के कार्य नहीं करने   चाहिए। मुझे शाम होते ही घर लौट जाना चाहिए। अगर मेरे लिए ये तय है तो राकेश के लिए क्यों नहीं? आखिरकार उसके भी तो पारिवारिक ज़िम्मेवारियाँ है, फिर मैं ही क्यों?

हर दिन मेरे पड़ोसियों को ये चिंता क्यों रहती है कि मैंने आज क्या पहना है? मेरा पहनावा मेरी मर्ज़ी है, मैं जो चाहूँ वो पहनूँ — जिसमें मैं आराम महसूस करूँ, वो मैं पहनूँ। ये थोड़े ही ज़रूरी है कि अपार्टमेंट में रहने वाली लड़कियों  की तरह ही मैं भी कपड़े पहनूँ — वे जो चाहे, जैसा चाहे, वैसा पहने। आख़िर रमेश भी ऑफ़िस जाने से पहले ये सोचता होगा कि आज क्या पहनूँ? वह वही पहनता होगा जो उसे पसंद है। फिर मैं इतना क्यों सोचती हूँ?

आखिर मुझे रमेश की तरह, कभी भी अपने काम को खत्म करके लौटने की, बिना समाज की परवाह किए,  जो मुझे पसंद है करने की आज़ादी क्यूँ नहीं हैं? आखिर इतनी बंदिशें हम महिलाओं के लिए ही क्यों? अब हम २१ वीं सदी में पहुँच गए हैं, आखिर कब तक ऐसी चीज़ों के बारे में सोच-सोच कर वक़्त ज़ाया करुँगी? जब मुझे काम, रमेश के बराबर ही करना  है तो, मैं इन सब का अतिरिक्त तनाव क्यों लूँ ?

मैं भी उतना ही मेहनत करती हूँ जितना की पुरुष करते हैं। मेरे आने में वैसे ही देरी हो जाती है जैसे कि मेरे पुरुष सहकर्मियों को होती है। मेरे देर से आने पर समाज मुझे घूरने के बजाय सम्मान से देखे और मेरे घर आने के वक़्त के बजाय, मेरी कड़ी मेहनत और समर्पण को देखें और समझें, न की मेरे देर से आने के लिए ताने दें। मैं खुद अपने काम की वज़ह से तनाव में रहती हूँ, कृपया समाज मुझे ताने देकर अतिरिक्त तनाव न दें। मेरे काम में मेरा सहयोग करें, आख़िरकार मेरे काम से लाभ तो उन्हें भी मिलता है।

अब मैं इतना नहीं सोचूंगी, जब मैं स्वतंत्र हूँ तो क्यों समाज के बंधन में बँधकर खुद की स्वतंत्रता को खो दूँ? अब मैं अपने हिसाब से चलूंगी। मैं ख़ुद को उतना ही स्वतंत्र महसूस करूँगी जितना मेरे पुरुष सहकर्मी करते हैं। हाँ, अब मैं पूर्ण रूप से स्वतंत्र हूँ। पर हाँ, मैं चाहती हूँ, समाज भी अपना नज़रिया बदले।

Note: 2018 में ब्रेकथ्रू ने हज़ारीबाग और लखनऊ में सोशल मीडिया स्किल्स पर वर्कशॉप्स आयोजित किये थे। इन वर्कशॉप्स में एक वर्कशॉप ब्लॉग लेखन पर केंद्रित था। यह ब्लॉग पोस्ट इस वर्कशॉप का परिणाम है।  

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