मेरी तीन साल की बिटिया न जाने कैसे इतनी सयानी हो गई है कि अपने आप सुबह आटा लेकर रोटियाँ बनाने लगती है। घर में जब भी कूड़ा कर्कट देखती है तो झाड़ू लेकर सफाई करने लग जाती है और सारी गंदगी को इक्कठा कर कूड़ेदान में डाल आती है। ऐसे ही अपनी रिश्तेदारी में कई बहनों को सुबह सबसे पहले उठकर घर आंगन की साफ सफाई करके, पशुओं का गोबर गाँव के बाहर कुरड़ी पर डाल कर आना, पशुओं को पानी पिलाना और उन्हें न्यार(घास) डालना, उसके बाद पूरे घर का खाना तैयार करते हुए देखा है।
सभी लड़कियों- महिलाओं का सुबह का यही काम रहता आया है। उसके बाद अपने खेतों में घर के मर्दों के बराबर बल्कि उनसे कई ज़्यादा मेहनत से वो काम करती रही हैं। दोपहर को घर आकर खाना भी बनाएंगी, सबके कपड़े भी धोएंगी। फिर पशुओं का न्यार काटकर लाना, उन्हें पानी पिलाना और फिर खेत में घर के पुरुषों की मदद करना। शाम को फिर से घर के उबा देने वाले काम। दूर नल से पानी लाना, खाना बनाना, सबको खाना खिलाकर बाद में बचा कुचा खाना खाकर बर्तन साफ करना। उस सबके बाद कहीं 10- 11 बजे उन्हें खाट नसीब होती है और पता नहीं कब नींद आई और सुबह फिर से 4-5 बजे उठ जाना।
सूरज की ड्यूटी भी सिर्फ 12 घंटे की ही होती है लेकिन महिलाओं का दिन तो 14 से 16 घंटे तक का हो जाता है। यानि सूरज से भी ज़्यादा सख्त ड्यूटी इस समाज में लड़कियों और महिलाओं की है। शहर में भी जब कभी काम के लिए वालंटियर्स के साथ जल्दी किसी दूसरे शहर गए तो उनके लेट आने का एक ही कारण होता है – कि उठकर घर में साफ सफाई और रोटी बनाकर आना होगा नहीं तो घर में मम्मी से डांट सुननी पड़ेगी और शायद अगली बार घर से आने ही न दिया जाए।
शायद लड़कियाँ अपने घरों के पितृसत्तात्मक माहौल को देखते हुए जल्दी ही सब सीख जाती है। अब लड़कियाँ और महिलाएं सुबह दिन निकलने से पहले से लेकर रात देर गए तक घर के इतने सारे काम करती हैं और बाहर खेत, दफ्तर या दुकान में भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं। देखा जाए तो महिलाओं के ज़िम्मे पुरुषों से भी ज़्यादा काम और जिम्मेवारियों का बोझ है। कामकाजी महिलाएं तो दोहरे बोझ का शिकार हैं। अगर महिलाओं के इन कामों की कीमत जोड़ी जाए या यही सब काम किसी वेतनभोगी नौकर से करवाए जाए अथवा हम पुरुषों को ये सब काम रोज़ाना करने पड़े तो हमें इन कामों की अहमियत का पता चलेगा।
इन सब कामों के माध्यम से लड़कियाँ शादी की उम्र आते आते अपने घर मे काफी संपत्ति जोड़ती है जबकि ज़्यादातर लड़के घर की संपत्ति में कटौती ही करते हैं कुछ जोड़ते नहीं। हाँ मज़दूर वर्ग या छोटे व माध्यम किसानों और निम्न मध्यम वर्ग के घरों के लड़के ज़रूर अपने घर के छोटे मोटे कामों में हाथ बटाते हैं। लेकिन घर की सम्पत्ति में जितनी वृद्धि लड़कियाँ करती हैं, उसके बराबर लड़के नहीं कर पाते। एक सर्वे के अनुसार दुनिया के कुल काम का 2 तिहाई यानि 67 फीसदी काम महिलाएं करती हैं। लेकिन इस सब के बावजूद भी उन्हें पैतृक संपत्ति या अपने पति की सम्पत्ति का हिस्सेदार क्यों नहीं माना जाता है?
यह देखा गया है कि लड़कियाँ मितव्ययी होती है, बचत करने वाली व सम्पत्ति में इज़ाफा करने वाली होती है जबकि अधिकांश लड़के पुरुष विरासत में मिली सम्पत्ति को नशे, जुए या ऐशोआराम में उड़ा देते हैं – फिर लड़कियों को पैतृक संपत्ति का वारिस क्यों नहीं समझा जाता? हमें समुदाय में महिलाओं के सम्पत्ति के अधिकार पर बात करते हुए अक्सर यह सुनने को मिलता है कि अगर उन्हें सम्पत्ति का अधिकार दे दिया गया तो लड़की का घर नहीं बस सकता क्योंकि उसके पास पैसा आ जायेगा और फिर वो अपने पति या सास ससुर की नहीं सुनेगी। हालांकि महिलाओं को कानूनन सम्पत्ति का अधिकार है और स्टैम्प ड्यूटी में कुछ कमी के चलते ज़मीन मकान उनके नाम भी करवाए जाते हैं लेकिन सामाजिक रूप से उनको कोई अधिकार नहीं है।
अगर किसी महिला ने कानूनन अपने पिता की संपत्ति में हिस्सा ले लिया तो उससे सभी रिश्ते नाते खत्म मान लिए जाते हैं। वह समाज की नज़रों से गिर जाती है और कभी गाँव मे पैर नहीं रख सकती। भाई कभी उसके घर पीलिया लेकर या भात भरने या तीज की कोथली या भैया दूज लेकर नहीं जाएगा, वह कभी अपने भाइयों को राखी बांधने गाँव नहीं आ सकती। लेकिन जब वह अपने घर की संपत्ति में इतना महत्वपूर्ण योगदान करती है तो संपत्ति के अधिकार पर उसका कोई सामाजिक दावा क्यों मान्य नहीं है? अक्सर यह तर्क दे दिया जाता है कि उसकी शादी में दहेज के रूप में उसे उसका हिस्सा दे दिया गया है या कभी कभार रक्षा बंधन, तीज-त्यौहार, पीलिया, भात के समय उसे कुछ सौगात देकर निपटा दिया जाता है। लेकिन यह दहेज और ये सौगात ही उसकी हीनता का कारण भी बनती है और ज़्यादा दहेज की मांग के कारण लड़कियाँ प्रताड़ित होती है और कई सारी लड़कियाँ दहेज की बलि चढ़ मौत का शिकार हुई हैं और यह दहेज की समस्या आज इतनी विकराल हो चुकी है कि लोग इसकी वजह से बेटियों को जन्म देने से घबराने लगे हैं।
दहेज की बजाय लड़कियों को संपत्ति का अधिकार मिलना चाहिए क्योंकि अगर उनके पास चल अचल संपत्ति के रूप में कुछ रहेगा तो ससुराल वाले उसे तंग करते हुए सोचेंगे। अगर उसे ससुराल से निकाल दिया जाए या उसके पति की मौत हो जाए तो वह अपने पैरों पर खड़ी हो अपना व अपने बच्चों का गुजर बसर कर सकती है। इसलिए हमें दहेज की जगह उसके संपत्ति के अधिकार पर ज़ोर देना होगा तभी सच्चे मायनों में समानता की बात की जा सकती है।
Xafter repealing & amending act 2015 daughter became co sharer of ancestral property of her father from 17 june 1956 like a son. It decided in the case of Iokmani by the Honble court of karnatka recently.It is great gift for daughters by Mody Govt.Daughter is all ready entitled to inherit property of her mother like her brother.