अपने जातिगत विशेषाधिकार को समझने का मेरा सफर.

“जाके पाँव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई” – ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी घटा, जिसकी वजह से आज मैं इस कहावत का अर्थ और अच्छे से समझ पाई हूँ। 

मैं अवाक् रह गयी जब कोमल ने कहा, “हम चंदा के पैसे तो दे देंगे लेकिन प्रसाद लेने नही जायेगें। सबसे पहले ऊँची जात वालो को ही प्रसाद मिलेगा, हम लोग भले ही क्यों न आगे खड़े रहें।” ये बात उस दिन की है जब मैं खुजेहता गाँव में अपने काम के सिलसिले में कुछ साथियों से बात-चीत कर रही थी। एक लड़की पूर्णिमा ने कहा था कि कल तो गाँव में मेला है और पूछा था कि कौन कौन जायेगा जिसका जवाब कोमल ने दिया था। 

उनकी बात सुनकर मैंने पूछा, “क्या बात है? आप लोग ये क्या कह रहे हो?” तब बच्चों ने कहा, “श्वेता दीदी हमारे गाँव में जब भुइयाँ देवी (गांव में पूजी जाने वाली देवी) की पूजा की जाती है, तो सारा गाँव मिलकर चंदा इक्कठा करता है और फिर शरबत और भंडारा करवाया जाता है। लेकिन वहां पर कोई लाइन का मतलब नही है। हम लोग खड़े ही रह जाते हैं और गाँव में जो ऊँची जाति के लोग हैं, उनको पहले प्रसाद मिलता है। हम लोगो को सबसे बाद में ही मिलता है जो की हमें अच्छा नही लगता इसीलिए हम लोग पैसे तो दे देतें है लेकिन प्रसाद लेने नही जाते हैं।”

मैं एक उच्च जाति से हूँ और मुझे भी उच्च जाति होने के कारण कई ऐसे विशेषाधिकार मिले हैं जिनका मैंने लाभ लिया है। कभी भी मुझे जातिवाद ने इतना अंदर तक नही झकझोरा है जितना उन मासूम बच्चों की बातों ने किया। साथ ही मैं कुछ समय से दूसरे गांवो में भी ऐसी ही घटनाओं को एक अलग नज़रिए से  देखने और समझने की कोशिश में लग गई हूँ। 

इस तरह की कई भेदभाव बढ़ाती हुई घटनाएँ और भी गॉंवों में देखने को मिली:

  • परेहता ग्राम पंचायत: यहाँ पर प्राथमिक विद्यालय में 5 रसोइयों ने बच्चों को खाना बाँटने से मना कर दिया क्योंकि विद्यालय के बच्चे जिन बर्तनों में खाना खाते हैं, उन्हें वो नही मांजेंगी क्योंकि वो उच्च जाति की हैं और बच्चों में कुछ बच्चे दलित और बहुजन समुदाय के हैं। इसके लिए उन्होंने ने अपनी नौकरी तक छोड़ने की बात कह दी! शिक्षकों ने भी हार मान हामी भर दी। 
  • कनेरी ग्राम पंचायत: काम के सिलसिले में हमने गाँव के सभी लोगों को बुलाया। सभी जाति व श्रेणी के लोग आए। उच्च जाति के लोग मैपिंग में अपना योगदान दे रहे थे, अपना घर बना रहे थे लेकिन जो दलित और बहुजन समुदाय के लोग थे उनके टोले मोहल्ले का नक्शा तक नही बनाने दे रहे थे। कुछ देर तक इंतज़ार करने के बाद दलित और बहुजन समुदाय के लोग उठ कर चले गये। फलस्वरूप हमे दलित और बहुजन समुदाय के टोलों कि मैपिंग अलग से करनी पड़ी।  
  • छतौनी ग्राम पंचायत: जब मैं और मेरे साथी ने कार्य के दौरान एक घर से पीने के लिए पानी माँगा तो उन्होंने हमें घर के बाहर की आलमारी में रखे एक गंदे से गिलास में पानी दे दिया। मुझे बहुत प्यास लगी थी तो मैंने वो पानी पी लिया। लेकिन उसके बाद जैसे ही गिलास को ध्यान से देखा तो पता चला की वो बहुत ही गन्दा है। फिर हमने पूछा की ये किसका घर है तो पता चला की ये तिवारी जी का घर है। वो इस बात से अनिभिज्ञ थे कि मैं उन्ही के जाति कि हूँ। पहली बार जो बर्ताव दलित और बहुजन समुदाय के लोगों के साथ होता है, वैसा बर्ताव झेल मुझे बहुत बुरा लगा और मैं उन तमाम लोगो का दर्द समझ पाई जिनके साथ ऐसा भेदभाव सदियों से होता आया है। 

मेरे गाँव में भी ऐसे ही मेरे घर के बाहर बनी आलमारी में ऐसी कुछ गिलासें हमेशा रखी रहती थीं। इन्हें पानी पीने वाले खुद ही साफ़ कर के रख कर जाते थे। आज मैंने इस बात का एहसास किया कि जिनके साथ ऐसा व्यवहार होता है, उनको कैसा लगता होगा। मैंने अपने घर में बात करके सबसे पहले उन गिलासों को हटवाया। 

इन अनुभवों ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया और मैंने निर्णय लिया कि बदलाव लाना है तो इसकी शुरुवात स्वयं से ही करनी होगी। आज अपने अंदर बदलाव लाने की शुरुआत कर मैं इस मुद्दे पर किशोर किशोरियों, जिनके साथ में काम करती हूँ, उनको संवेदित कर उनके मन से इन भेदभाव के विचारों को दूर करने के लिए और भी कटिबद्ध हूँ | 

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1 thought on “अपने जातिगत विशेषाधिकार को समझने का मेरा सफर

  1. A very shameful practice of treatment given to unprivileged people is prevalent even today. Can we, who are privileged and live , in metropolitan city do anything to get rid of this act of treatment to unprivileged.

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