मर्दों का डरना ज़रूरी है।.

मेरा एक पत्रकार दोस्त इन दिनों बहुत डरा हुआ है।  #MeToo अभियान का डर उसके ज़हन में बैठ गया है, वो कहता है कि उसका डर ये नही है कि उसने ऐसा किया है, डर तो इस बात का है कि कोई लड़की उस पर झूठा आरोप न लगा दे। मेरा वो दोस्त एक न्यूज़ चैनल में प्रोड्यूसर है। अकसर काम के दवाब में सहकर्मियों के साथ जिसमें लड़कियाँ भी शामिल हैं, उनसे पैकेज, रनडाउन, स्क्रिप्ट को लेकर थोड़ी बहुत नोक-झोंक हो जाती है। कल मिला तो कहने लगा कि समझ नहीं आ रहा है कि काम कैसे करें। #MeToo  ने लड़कियों को जो ताकत दी है, कहीं इसकी वजह से काम को लेकर होने वाली नोक-झोंक की वजह से वो भी #MeToo का शिकार न हो जाए।

उसकी इस चिंता पर मैं कुछ देर खामोश रहा फिर चुप्पी तोड़ते हुए बात को आगे बढ़ाया कि क्या हम मर्दों ने इससे पहले कभी यह डर महसूस किया है? क्या हम इस तरह के डर के साथ कभी जिए हैं, ज़ाहिर है इसका उत्तर ना ही होगा। लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है, अपने आस-पास देखो, पुराने दिनों को याद करो और आज के अपने तथाकथित ओपेन माइंडेड वाले घरों और समाज को देखो! कैसे एक लड़की जब ठीक तरह से होश भी नही संभाली होती है, उसे और कुछ पता हो या न हो लेकिन डर को महसूस करना, उसके साए में जीना उसे आ जाता है।

घर में बचपन से ही उसे सुनने की आदत डलवायी जाती है, जवाब नहीं देना है और परंपराओं और संस्कृति बचाने की सारी ज़िम्मेदारी भी उसी की है। स्कूल जाएगी तो सर झुकाकर जाएगी। लड़के तो छेड़ते ही हैं, उनका जवाब नही देना है। नौकरी करना ज़रूरी है तो कर लो, लेकिन घर की दहलीज़ पार करते समय ये सोच लेना कि ख़ानदान की नाक न कटाना। इस कंडीशनिंग के साथ बड़ी होती लड़की को शादी के लिए भी इसी तरह से तैयार किया जाता है कि खाना बनाना, बच्चे पालना, सभी रिश्तों का ख्याल रखना और पति से बहस न करना। ससुराल से अर्थी ही निकलेगी, तुम पति से लड़कर या अकेले मायके नहीं आओगी। ये तमाम शब्द बार-बार सुनकर उसके ज़हन में ऐसी चस्पा होती हैं कि वो ताउम्र उससे निकल नहीं पाती है।

#MeToo अभियान के अंतर्गत जो महिलाएं आवाज़ उठा रही हैं लोग उनसे जवाब मांग रहे हैं और टिप्पणी कर रहे हैं। इतने सालों बाद ये आरोप क्यों? काम नहीं है जिनके पास वो ही इस मसले पर सवाल उठा रहीं हैं, जिससे नाम के साथ काम भी मिल जाए। कई लोग कह रहे हैं कि इनमें से कई लोग अगले बिग बॉस के प्रतिभागी हो सकतें हैं? यहां चिंतित करने वाला सवाल ये है कि क्या किसी के सच को मापने का हमारा नज़रिया ये होना चाहिए? सारी उम्र जिस लड़की को डर के साए में जीना, ‘तरक्की के लिए कुछ तो चुकाना पड़ता है’, जैसे शब्दों को अपनाना सिखाया गया है; अब जब वह आवाज़ उठा रही है तो पितृसत्तात्मक सत्ता इसे कैसे ही स्वीकार कर पाएगी ?

लोग स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि महिलाएं आवाज़ उठाए, न तो आम आदमी, न तो धार्मिक संस्थाएं और न ही हमारे नेता। हर कोई लगा है उनको दोषी ठहराने के लिए ,उनके चरित्र पर सवाल उठाने के लिए। किसी भी घटना होने पर महिला के चरित्र पर हजार सवाल लाज़मी होते हैं, भले ही वो दोषी न हो।

तो मर्दों जब चरित्र पर सवाल उठता है तो वो सवाल कितना विचलित करता हैं ज़रा इसको भी महसूस करके देखिये। डर के साए में भी एक बार जीकर देखिये। कैसा लगता है जब एक लड़की घर से बाहर स्कूल के लिए निकलती है, जब वो बस पकड़ती है, जब वो मर्दों के बीच में ऑटो में होती है या जब वो ऑफिस में होती है? और मर्दों अगर आप डर के साए से बाहर निकलना चाहते हैं तो फिर ऐसी दुनिया बनाने के लिए आवाज़ उठाइये और ऐसा माहौल बनाइये जहां औरत और मर्द के हिसाब से सुरक्षित माहौल के मायने तय न हो बल्कि जहां समानता के साथ हर किसी का सेफर स्पेस हो।

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