माहवारी, एक ऐसा शब्द जिसे आज जैसे आधुनिक युग में भी शर्म की बात माना जाता है। समाज आज भी उतना ही पिछड़ा हुआ है, और पिछड़ी हुई सोच लिए चलता है।
मेरे अनुभव तो कुछ अजीब ही से थे। हम मुस्लिम हैं, हमको बचपन में पास के मदरसे में धार्मिक शिक्षा लेने के लिए घर से बाहर जाना पड़ता था। मेरी बहन और मैं रास्ते में उछल कूद करते पढ़ने जाते थे। गर्मी की छुट्टियाँ भी थी और हम शाम का इंतज़ार करते के हम कब जाएंगे पढ़ने। एक साल तो सब ठीक रहा मगर जब अगले साल हमारी छुट्टियाँ पड़ीं तो मेरे साथ मेरी बहन को जाने नहीं दिया गया, मैं हताश था और वह उदास। मैंने पूछा, “चल न, चलते हैं जामुन भी तोड़ें।” मगर उसकी ज़ुबान ने नहीं बल्कि उसकी आँखों ने मुझे जवाब दिया, उसके आँसू टपक पड़े। मैंने अपनी माँ से पूछा, “अम्मी यह मेरे साथ मदरसे नहीं जा रही पढ़ने, पर क्यों?” माँ का जवाब आया, “बेटा अब वो बड़ी हो गई है, घर पर मैं ही पढाऊंगी।” उनका यह कहना था और मेरी मायूसी का जो दायरा था वह बेहद गहराई में चला गया और मैं चुप होकर लेट गया। यह वाला अनुभव मेरी ज़िंदगी के कड़वे अनुभवों में से एक है, जो मुझे सालों साल तकलीफ़ देता रहा। मेरी बहन को हर धार्मिक पूजा से दूर रखा जाने लगा, कभी कभी तो अगर उसके हाथ गीले हैं और उसने मुझे छू लिया तो मेरी माँ उसका डांटती थी,” तू नापाक है, क्यों छुआ इसको, जा अंदर जा।”
यह सब मेरी सहनशीलता से आगे की बात बनने लगी, मैं आठवीं कक्षा में आया और मेरे साथ साथ मेरे अनुभव और शिक्षा का स्तर भी बढ़ा। मेरे विद्यालय की कक्षा की लड़कियों के साथ भी मैंने महसूस किया था, वह अचानक मैडम के पास जातीं और मैम कुछ लड़कियों को अपने पास बुला कर शौचालाय में भेज देती। मेरे लिए वाकई में यह बहुत नई बात थी। मैं सोच में ही डूब जाता आख़िर हुआ क्या? लड़के उन लड़कियों का मज़ाक उड़ाने लगते के अब इसको छूना मत आदि। मैं कक्षा नौवीं में आया, पाठ था रिप्रोडक्टिव सिस्टम, जिस पाठ में हमको पुरूष जननांग और महिला जननांगों के चित्र दिए हुए थे। जब मुझे किताब नई नई मिली तो मुझे देखने में शर्म भी आई और मैं उत्सुकता वश इंतज़ार करने लगा कि मैडम कब पढ़ाएंगी यह पाठ। मगर ऐसा नहीं हुआ। हमको उस पाठ को छोड़ने के लिए कहा गया, और किसी भी बच्चे ने वह पाठ नहीं पढ़ा और मैडम आगे बढ़ गईं।
मुझे अब भी कुछ समझ नही आ पा रहा था। मैंने कुछ दिनों बाद अपनी माँ से ही पूछ लिया की यह दुआ में शामिल क्यों नहीं हो पाती? यह गीली अगर हो गई तो मुझे क्यों नहीं छू सकती? माँ मुझे अंदर ले गईं और मुझे समझाया, बेटा यह लड़कियों की पर्सनल बात है, इससे तेरा कुछ लेना देना नहीं, ‘वो लड़कियों वाली बात है।’ मुझे अब भी नहीं बताया गया और न कहीं से कोई सटीक प्रमाण मिलता। मैं ग्यारहवीं कक्षा में था, तब भी लड़के यही बोलते, “देख इसकी स्कर्ट पर लाल रंग लगा है, यह खून है, जैसे हमारे वीर्यपात होता है जब हम उत्तेजित होते हैं ऐसे ही इनके खून निकलता है।” पर यह बात भी निरर्थक थी, मुझे इसका सार्थक जवाब अब भी नहीं मिला था। बस एक बार किसी से सुना की लड़कियों को पीरियड्स होते हैं, उसमें उनको खून निकलता है आदि। मैंने फिर ख़ुद इसको इंटरनेट के सहारे रिसर्च कर के जाना की यह वाकई में क्या है? यह कौन सा प्रोसेस है, वैज्ञानिक तौर को प्राथमिकता दें या धार्मिक आडम्बरों को।
मैंने उसमें यही तथ्य पाए कि यह एक साधारण प्रक्रिया है, जो हर महिला के साथ होती है। यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। मुझे समझ आ गया था की लोग घोर अंधविश्वास के काले बादलों से घिरे हुए हैं। यह लोग कितना अन्याय करते आ रहे हैं छोटी छोटी उम्र की बच्चियों के साथ, इनको पता भी नहीं होगा की यह उनको किस तरह का मानसिक आघात पहुंचा रहे हैं। ‘लड़कियों की बात है’ जैसे वाक्यों के मतलब मुझे समझ आ चुके थे, मेरी 13 साल की बहन के वो आँसू जो मेरे दिल में घर कर गए थे, उनका जवाब मुझे अब मिल गया था। मेरी माँ का बर्ताव जो मेरी बहन के लिए था वह भी मुझे समझ आ गया था।
समाज वैसे ही पितृसत्ता की आग में कब से तपता हुआ आ रहा है, और उस बीच एक यह भी अवधारणा बना दी गई कि इनको धार्मिक या घरेलू वातावरण में बचपन से ही प्रताड़ित करने शुरू कर दिया गया। जागरुकता की घोर कमी की वजह से हमारे समाज में एक प्राकृतिक प्रक्रिया को एक पाप समझा जाने लगा।
समय है लोगों में इस चीज़ के लिए जागरूकता फैलाने की, और यह काम एक पुरूष के द्वारा ही शुरू किया जाना चाहिए। इससे लोगों के अंदर जो शर्म और भय है वो निकलेगा। यह मात्र एक प्राकृतिक की प्रक्रिया है इसके अलावा कुछ नहीं, न तो इसका चरित्र से कोई लेना देना और न ‘गंदी बात’ से। मेरे विचार से समाज में सबसे पहले स्कूलों में यह बात बतानी होगी, अभियान चलाना होगा की यह सब बिल्कुल साधारण सी बात है। हम अगर बात करें फिल्मों की तो ‘पैडमैन’ जैसी जागरूकता फैलानी वाली फिल्मों को बनाया जाना चाहिए और लोगों को समझाना चाहिए।
मैंने खुद एक मुहिम दो साल पहले अपने घर से शुरू की। मैंने अपनी बहन को खुद पैड लाकर दिए, उसकी प्रतिक्रिया यह थी कि दो दिन तक उसने मुझे अपनी शक्ल तक नहीं दिखाई। इस बात के पीछे जाईये के उसकी ऐसी प्रतिक्रिया क्यों आई? इसके लिए सीधे तौर पर समाज ज़िम्मेदार है और समाज में फैली पितृसत्ता, जो अब तक अपने पाँव पसार रही है। बहरहाल! मैंने अपनी मुहिम जारी रखी है और मैं आज भी अपने घर की महिलाओं के लिए बाज़ार से पैड लाकर खुद देता हूँ और एक वक्त अब ऐसा आ गया है कि मेरे घर की हर लड़की या महिला मेरे से इस सिलसिले में खुल कर बात करती हैं। मेरे विद्यार्थियों की माँ मेरे से यह बोलने में बिल्कुल नहीं कतराती की, “आज बच्ची नहीं आयेगी उसको थोड़ा कमर में दर्द है ‘पीरियड’ की वजह से।”
यह बात सुनने में शायद साधारण लगे मगर यह एक ज़ोरदार तमाशा है उनके मुँह पर जो महिलाओं को कुछ दिनों के लिए अपवित्र मानते हैं। यह बदलाव हर कोई शुरू कर सकता है। लोगों में झिझक को ख़त्म कर सकते हैं और आईये पुरानी रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक सोच को एक साथ कुचलने के प्रयास करते हैं।
हमको ऐसे अभियानों से जुड़ना चाहिए जहाँ समानता जी बात हो, जहाँ एकता की बात हो। महिलाओं के लिए वह पाँच दिन अगर अपवित्र हो सकते हैं, तो हमको ऐसी पवित्रता से कोई सरोकार नहीं, और हम ऐसी प्रक्रिया का खंडन करते हैं।