दिन प्रतिदिन हमें किशोरों की रेप जैसे संगीन अपराधों में शामिल होने की खबरें मिलती रहती हैं। आखिर ऐसा क्या हो रहा है कि जो किशोर पढ़ाई, खेल – कूद में शामिल होने चाहिए वो अपराधी बन रहे हैं? लड़कियों के साथ क्रूरता की सभी हदें पार कर रहे हैं। आखिर युवा इतने असंवेदनशील क्यों हो रहे हैं ?
जैसे ही लड़के लड़कियाँ किशोरावस्था में पहुंचते है उनके शरीर में कई बदलाव होते हैं।लड़कियाँ किसी ना किसी रूप में शारीरिक परिवर्तनों को लेकर अपनी मां दादी आदि से शेयरिंग कर लेती हैं। परन्तु लड़के अपने परिवार में कभी भी अपने शारीरिक परिवर्तनों पर बातचीत नहीं कर पाते। इस उम्र में उन्हें एक अच्छे दोस्त की ज़रुरत होती है लेकिन हमारे समाज की गलत मान्यताओं के चलते एक पुरूष को हमेशा एक मर्द की ही भूमिका निभानी पड़ती है। जबतक घर के पुरूष मर्द बनें रहेंगे, अपने बच्चों के साथ दोस्ताना व्यवहार नहीं करेंगे, तब तक हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि किशोर युवा संवेदनशील बनेंगे ?
अक्सर हम जो सिखते हैं ज्यादातर वह अपने परिवार से ही सिखते हैं। जब कोई लड़का देखता है कि घर का कोई पुरूष, महिला को बात बात पर डांट रहा है या मार पिटाई कर रहा है, तब जाने अनजाने में लड़के सोचने लग जाते हैं कि मुझे बड़ा होकर एक मर्द बनना है और एक मर्द की परिभाषा यही है – महिलाओं को डांटना -पीटना। उसके किशोरावस्था में हजारों सवाल होते हैं जिनके जवाब मिलते ही नहीं और मिलते भी है तो वो उसे संतुष्ट नहीं कर पाते। यही सवाल एक विस्फोट बनकर अलग अलग समय में अलग अलग तरीके से सामने आते हैं।
बचपन से ही हम लड़कों की परवरिश इस तरह करते हैं कि उनके प्रत्येक सही और गलत इच्छाओं को पूरा करते चले जाते हैं। वहीं लड़कियों को बहुत ज़रूरी सामान के लिए भी कई कई दिनों तक इंतजार करवा देते हैं। अभी सोनीपत की लड़की के साथ रोहतक में गैंग रेप के बाद हत्या का यही कारण रहा कि लड़की ने शादी से मना कर दिया था। लड़कियाँ मना कर दें इसको बर्दाश्त करना मर्दों ने कभी सीखा ही नहीं। ना सुनना अपनी मर्दानगी पर चुनौती समझते हैं।
जितना बच्चे अपने घर से सिखते हैं उतना ही अपने आस पास के माहौल से भी सिखते हैं। यदि पड़ोस के लोग गाली गलोच के साथ बातें करते हैं तो लड़के भी उनकी नकल करके गाली देना शुरू कर देते हैं। उन्हें प्रोत्साहित किया जाता है, वहीं लड़की के मुंह से गाली निकल जाए तो घर वालों के साथ साथ आस पड़ोस के लोग भी मारने को दौड़ते हैं। अब समय आ गया है की हम लड़को को हर वो जरूरी बात सिखाएं जो लड़कियों को सिखायी जाती है।
लड़को की संवेदनशीलता खत्म करने में मीडिया का बहुत अहम रोल रहा है। मीडिया लड़को को इस तरह पेश करती है कि वो ना रो सकते हैं, और ना ही डर सकते हैं और फिर हम उम्मीद करते हैं कि लड़के संवेदनशील बने, वो ना को स्वीकार करना सीखें।
किशोरावस्था में जैसे ही लड़के कदम रखते हैं, वो अपने रोल मॉडल भी बनाना शुरू कर देते हैं। वो अपने उस पड़ोसी को भी रोल मॉडल मान सकते हैं जो प्रत्येक दिन अपनी पत्नी की पिटाई करता है, या फिर पूरे मोहल्ले में दबंगई करता है, गली के नुक्कड़ पर खड़े होकर लड़कियों पर गंदे गंदे कमेंट करता है। इन सबके बाद हम उम्मीद करते हैं कि वो लड़कियों के प्रति संवेदनशील हों।
सन्नी देओल की एक फिल्म है जिसमें लड़की सन्नी देओल को शादी से मना कर देती है। तब सन्नी दयोल का डॉयलॉग है कि, “अगर आपने किसी ओर से शादी की तो लाशें बिछा दूँगा,लाशें”। फिल्मों में जब किशोर इस तरह के डॉयलॉग सुनेंगे और उन्हें कोई समझाने वाला नहीं होगा तो कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वो औरत को अपने बराबर का इंसान समझे?
“तू हाँ कर या ना कर, तू है मेरी किरण” – इस तरह के गीत एक खास मानसिकता बना रहे हैं कि लड़कियों को हाँ या ना कहने का कोई अधिकार नही है। इसी प्रकार हरियाणा में “मारी गालै म्हं एक पटोला तू” जैसी रागनियां महिला को एक वस्तु बनाने पर तूली हुए हैं। हमें ऐसे गीत व रागनियां रचना की जरूरत है जो लैंगिक समानता पर आधारित हों।
अगर हम ये बदलाव ला पाए, तभी हम किशोरों से संवेदनशीलता और समाज में समानता की उम्मीद रख सकते हैं।